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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-77

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 77 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब हसरत मोहानी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

 
"बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम"

मफऊलु   फाइलातु   मुफाईलु  फाइलुन/फाइलातु

221 2121 1221 212/2121

(बह्र:  मुजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़)
रदीफ़ :- तमाम
काफिया :- अन (चलन, पैरहन, बांकपन, धन आदि)
 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 25 नवंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 26 नवंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 25 नवंबर दिन शुक्रवार  लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)

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Replies to This Discussion

अब तो मुख़ालिफ़त की इजाज़त हमें कहाँ

ज़म्हूरियत के खत्म हुए हैं चलन तमाम...........वाह ! खूब कहा है.

भाई शिज्जु 'शकूर' जी सादर, बहुत खूबसूरत गजल कही है. शेर दर शेर दाद औ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं. गिरह भी खूब उम्दा लगाई है. सादर.

जनाब शिज्जु शकूर साहिब उम्दा गजल के लिए बधाई कबूल करें।
आदरणीय शिज्जु शकूर साहब बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है। बधाई कबूल फ़रमाएँ।

आदरनीय शिज्जु भाई , बहुत खूबसूरा गज़ल हुई है , गिरह भी कमाल की लगी है , बधाइयाँ स्वीकार करें ।

दूसरे, चौथे व पाँचवें बेहतरीन अशआर के साथ बेहतरीन प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको मोहतरम जनाब शिज्जु शकूर साहब।

मुर्दा समझ-के तुझको कहीं नोच ही न लें

मँडरा रहे हैं सर पे जो ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम

सुंदर ग़ज़ल बधाई स्वीकार करें

उम्दा ग़ज़ल के लिए ढेरों बधाई आदरणीय शिज्जु सर।

आदरणीय शिज्जू भाई जी, बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है. शेर-दर-शेर दाद-ओ-मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर 

दौलत की चाह ले गई हुब्बे वतन तमाम

गद्दार हो गये हैं सियासी रतन तमाम 

 

इक चाँद आसमाँ पे चमकने जो लग गया

साजिश में राहू –केतू लगाये ग्रहन तमाम

 

हाँ ! रिज़्क की डगर में भी नेकी का रख खयाल

अब मुंतजर न हों कहीं दार–ओ-रसन तमाम

 

गमनाक हादिसे पे गज़ल किसने फिर कही  

आँसू पिये से लग रहे हैं अब सुखन तमाम

 

वर्तुल है ज़िन्दगी की डगर, देख क्या हुआ  

फेरा लगा, वहीं पे मिले गाम जन तमाम

 

बेरोक घर मे घुस गईं पश्चिम की सभ्यता

कमज़ोर तो नहीं थे हमारे जतन तमाम  ?

 

मंज़िल मिली तो कौन करे याद अब सफ़र

दुश्वारियाँ . वो राह के कांटे , चुभन तमाम

 

गर इक नज़र ने की थी अता होश,  क्या ग़लत  ?

बेहोश इक नज़र मे हुई अंजुमन तमाम

 

रिश्ते जियें तो यूँ , कि ज्यूँ तन और मन जिये  

डरता है मन तो कांपता जैसे है तन तमाम

****************************************
पुछल्ले --

बचना ! उतर न जायें कहीं पैरहन तमाम

बे आग ख़ाक हो गया है जैसे धन तमाम

 

आवाज़ थी दहाड़ की या बम फटा, कहो

बेजान क्यूँ लगे है यहाँ अंजुमन तमाम

कुछ स्याह खू  ही   पीटते सीना दिखे मगर

पीछे खड़े लगे है मुझे , हाँ ! वतन तमाम

गदहों के रेंकने से उसे फर्क़ क्या पड़े          
स्वीकार कर लिया है जिसे ये भुवन तमाम

*****************************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

आदरणीय गिरिराज जी बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है आपने। मुबारकवाद कबूल फरमाएं।

बेरोक घर मे घुस गईं पश्चिम की सभ्यता
कमज़ोर तो नहीं थे हमारे जतन तमाम ?
वाह बहुत खूब।

आदरणीय वासुदेव भाई , हौसला अफज़ाए का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

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"आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आपके पुनः आगमन की प्रतीक्षा में हूँ "
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सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय लक्ष्मण भाई ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका हार्दिक आभार "
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"आदरणीय कपूर साहब नमस्कार आपका शुक्रगुज़ार हूँ आपने वक़्त दिया यथा शीघ्र आवश्यक सुधार करता हूँ…"
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Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय आज़ी तमाम जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल है आपकी। इतनी सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।"
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Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ​आपकी टिप्पणी एवं प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
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