बह्र-ए-मीर पर आधारित ग़ज़ल
कमबख्त कहाँ से आये इतनी रात गये
उनकी यादों के साये इतनी रात गये
आज उभर के आया है इक दर्द पुराना
बेलौस हवा सहलाये इतनी रात गये
कश्ती कागज की गहरे यादों के दरिया
अब नींद कहाँ से आये इतनी रात गये
गीली मिटटी की सौंधी सौंधी सी खुशबू
अंतस में आग लगाये इतनी रात गये
किस प्रियतम के लिए हुआ बैचैन पपीहा
जो घड़ी घड़ी चिल्लाये इतनी रात गये
दूर उफ़क़ से आती हैं ग़मगीन सदाएं
'ब्रज' मुझको कौन बुलाये इतनी रात गये
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आभार संग नमन आदरणीय लक्ष्मण धामी जी...
आ. भाई बृजेश जी ,सुंदर गजल हुयी है हार्दिक बधाई ।
तहेदिल से शुक्रिया ज़नाब राज़ नवादवी जी...
आदरणीय बृजेश जी, आदाब. ख़ूबसूरत ग़ज़ल कहने के लिए बधाई स्वीकार करें. मतला सुन्दर बन पडा है. सादर
आदरणीय आरिफ जी स्वागत संग आभार आपका...
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर जी...आपके शब्दों से उत्साह बढ़ जाता है...
आदरणीय बृजेश कुमार जी आदाब,
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद ।
जनाब बृजेश कुमार "ब्रज," साहिब आदाब,बह्र-ए-मीर पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
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