कोई शिकवा गिला नहीं होता ।
तू अगर बावफ़ा नहीं होता ।।
रंग तुम भी बदल लिए होते ।
तो ज़माना ख़फ़ा नहीं होता ।।
आजमाकर तू देख ले उसको ।
हर कोई रहनुमा नहीं होता ।।
जिंदगी जश्न मान लेता तो ।
कोई लम्हा बुरा नहीं होता ।।
कुछ तो गफ़लत हुई है फिर तुझ से।
दूर इतना खुदा नहीं होता ।।
देख तुझको मिला सुकूँ मुझको ।
कैसे कह दूं नफ़ा नहीं होता ।।
दिल जलाने की बात छुप जाती ।
गर धुंआ कुछ उठा नहीं होता ।।
गर इशारा ही आप कर देते ।
मैं कसम से जुदा नहीं होता ।।
कुछ शरारत थी आँख की तेरी ।
बेसबब वह फ़िदा नहीं होता ।।
वो मुहब्बत की बात करते हैं ।
इश्क़ जिनको पता नहीं होता ।।
दर्द इतना है आपको शायद ।
आप से मशबिरा नहीं होता।।
आग सीने की बुझ गयी होती।
घर मेरा भी जला नही होता ।।
हाल मत पूँछ अजनबी बनकर ।
ज़ख्म तुझसे छुपा नहीं होता ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नवीन जी नमस्कार , बहुत ही खूबसूरत गजल, दिली
मुबारकबाद कुबूल फरमायें ।
आ0 तेजवीर सिंह साहब हार्दिक आभार के साथ नमन
आ0 गुमनाम पिथौरागढ़ी साहब हार्दिक आभार
आ0 लक्ष्मण धामी साहब सादर आभार
आ0 नीलम उपाध्याय जी सादर नमन के साथ आभार
आ0 बसन्त कुमार शर्मा साहब तहे दिल से शुक्रियः
वाह एक से बढ़कर एक शेर हुए हैं आदरणीय , बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय नवीन मणि जी, नमस्कार । खूबसूरत गजल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ।
"आग सीने की बुझ गयी होती। घर मेरा भी जला नही होता ।।
हाल मत पूँछ अजनबी बनकर । ज़ख्म तुझसे छुपा नहीं होता ।।"
आ. भाई नवीन जी, बेहतरीन गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
वाह इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद......... वाह बहुत खूब।।।।।
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