नश्वरता ....
तुम
कहाँ पहचान पाए
उस बुनकर की
आदि और अंत की
अनंत बुनती को
तुम
बुनकर बन
असफल प्रयास करते रहे
विधि के बनाये
आदि और अंत के
नग्न शरीर की
कृति पर
सच-झूठ ,अच्छा-बुरा ,
तेरा-मेरा ,पाप-पुण्य की सजावट से
दुनियावी वस्त्रों को
अलंकृत करने का
मैं
धागा था
तुम्हारे दर्द का
तुम
बुनकर हो कर भी
मुझे न पहचान पाए
जानते हो
उसकी
और
तुम्हारी
बुनती
क्या फ़र्क है
उसकी बुनती
अमरत्व को जन्म देती है
तुम्हारी बुनती
नश्वरता को
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय हर्ष महाजन जी सृजन आपकी मधुर प्रशंसा का आभारी है।
आदरणीया बबितागुप्ता जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से शुक्रिया।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन की प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीय नीलेश जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब .... सृजन पर आपकी मन मुदित करती प्रशंसा का दिल से आभारी है।
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी सृजन को मान देने का दिल से आभार।
अति सुंदर सृजन आदरणीय सुशील जी |
सादर |
आदरणीय सर जी,मायावी दुनियां की उधेड़बुन में हुए मानव की नश्वरता की अच्छी प्रस्तुति ,बधाई स्वीकार कीजिएगा.
आ. भाई सुशील जी, बेहतरीन रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
आ. सुशिल जी,
अच्छी प्रभावशाली रचना हुई है .. बहुत बहुत बधाई
सादर
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