“भेड़िया आया... भेड़िया आया...” पहाड़ी से स्वर गूंजने लगा। सुनते ही चौपाल पर ताश खेल रहे कुछ लोग हँसने लगे। उनमें से एक अपनी हँसी दबाते हुए बोला, “लो! सूरज सिर पर चढ़ा भी नहीं और आज फिर भेड़िया आ गया।“
दूसरा भी अपनी हँसी पर नियंत्रण कर गंभीर होते हुए बोला, “उस लड़के को शायद पहाड़ी पर डर लगता है, इसलिए हमें बुलाने के लिए अटकलें भिड़ाता है।“
तीसरे ने विचारणीय मुद्रा में कहा, “हो सकता है... दिन ही कितने हुए हैं उसे आये हुए। आया था तब कितना डरा हुआ था। माता-पिता को रास्ते में डाकूओं ने मार दिया, हमने पनाह देकर अपनी बकरियां चराने का काम दे दिया... अनजानी जगह में तो आहट से भी डर लगे... है तो बच्चा ही...”
चौथा बात काट कर कुछ गुस्से में बोला, “बच्चा है, इसका मतलब यह नहीं कि रोज़-रोज़ हमें बुला ले... झुण्ड से बिछड़ा एक ही तो भेड़िया है पहाड़ी पर... उस औंधी खोपड़ी के डरने के कारण रोज़ दस-पांच लोगों को भागना पड़ता है, फायदा क्या उसे भेजने का?”
और वह चिल्लाते हुए बोला, “कोई भेड़िया नहीं आया... पहाड़ी पर कोई नहीं जाएगा...”
वहां से गुजरते हर स्त्री-पुरुष ने वह बात सुन ली और पहाड़ी की तरफ किसी ने मुंह नहीं किया।
“भेड़िया आया...” का स्वर उस वक्त तक गूँज रहा था। कुछ समय पश्चात् उस स्वर की तीव्रता कम होने लगी और बाद में बंद हो गयी।
शाम धुंधलाने लगी, वह लड़का लौट कर नहीं आया। आखिरकार गाँव वालों को चिंता हुई, उनमें से कुछ लोग पहाड़ी पर गये। वहां ना तो बकरियां थीं और ना ही वह लड़का। हाँ! किसी भूखे भेड़िये के रोने की धीमी आवाज़ ज़रूर आ रही थी।
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
जिसे पीड़ित समझा गया वो शातिर निकला वाह .. बोध कथा से प्रतीक लेकर शानदार सृजन हार्दिक बधाई आदरणीय चंद्रेश जी
समसामयिक रचना,बेहद प्रभावी और वर्तमान हालातों पर सटीक चोट करती हुई। बहुत बधाई आपको
जनाब चंद्रेश कुमार साहिब, अच्छी लघुकथा हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें।
वर्तमान/ समसामयिक नकारात्मक घटनाचक्र/ यथार्थ पर तमाम मीडिया में प्रकाशित हो रही विभिन्न विधाओं में रचनाओं से हटकर मेरे नज़रिए में उपरोक्त बेहद सकारात्मक संदेश वाहक रचना में 'भेड़िया' एक बहुआयामी बिम्ब/प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया गया है भारतीय साहित्यकारों का प्रतिनिधित्व करते एक शोधकर्ता लघुकथाकार के दिल की ' भारत की बात' ओबीओ के गंभीर पाठकों को और भारत के शुभ चिंतकों तक बाख़ूबी सम्प्रेषित करने के लिए!
भेड़िया = रेपिस्ट/ बलात्कारी; स्वार्थी- राजनेता या राजनीतिक दल; भ्रष्टाचार; कुनीति/कुरीति/अपसंस्कृति; विदेशी आक्रमणकारी/उद्योगपति/ विदेशी निवेश /तकनीक ...... आदि बहुत कुछ!
इसी प्रकार "पहले/दूसरे/तीसरे/चौथे पात्र ..... स्त्री-पुरुष" को हमारी तथाकथित "देशभक्त जनता" के प्रतिनिधित्व करते उन पात्रों को प्रयुक्त किया गया है, जो कि वास्तव में 'ढोंगी दिव्यांग' बन कर भेड़िए की आमद/शक्ति/हमलों से भयभीत होते हुए भी 'पंगु' बन कर उसकी उपेक्षा कर 'अंत में' एकत्रित हो कर अपने अश्रु बहाते/ठहाकों से फिर सामान्य जीवन जीने लगते हैं और " भूखे भेड़िए" के सुर वहां गूंजते रहते हैं। वह भूखा बहुरूपिया कहीं न कहीं अपने काम पर लगा हुआ है।
जनता है कि अभी भी उस 'भूखे भेड़िया' का परम्परागत/आदतन आलाप कर रही है, रोना रो रही है!
//वहां ना तो बकरियां थीं और ना ही वह लड़का। हाँ! किसी भूखे भेड़िये के रोने की धीमी आवाज़ ज़रूर आ रही थी।
//.. ये पंक्तियां बता रहीं हैं कि आमतौर पर चेतने से पहले ही " रेपिस्ट/ बलात्कारी; स्वार्थी- राजनेता या राजनीतिक दल; भ्रष्टाचार; कुनीति/कुरीति/अपसंस्कृति; विदेशी आक्रमणकारी/उद्योगपति/ विदेशी निवेश /तकनीक ... आदि अपने सुरक्षित मुकाम पर पहुंच चुकी होती हैं अपनी अभीष्ट छाप छोड़ कर!
रचना देश की जनता को यूं चिंतन-मनन के लिए विवश कर चेताती है, जगाती है,
और ' उल्लू' बनने के बजाय नव जागरण के लिए आंदोलित करती है।
आदरणीय लेखक महोदय डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी जी को एक बार फिर से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार।
अभी दूसरी बार पढ़ कर केवल इतना समझ पाया हूं। कृपया ग़लत होने पर मुआफ़ कीजिएगा। मैं इसे कितना सही समझ सका, मार्गदर्शन निवेदित !
आदरणीय लेखक महोदय डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी जी को एक बार फिर से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार।
अभी दूसरी बार पढ़ कर केवल इतना समझ पाया हूं। कृपया ग़लत होने पर मुआफ़ कीजिएगा। मैं इसे कितना सही समझ सका, मार्गदर्शन निवेदित हैं!
आदरणीय चंद्रेश जी ..रचना का अंत भावुक बनाने वाला है ...इस शानदार प्रयास पर हार्दिक बधाई सादर
जनाब चन्द्रेश जी आदाब,बहुत अच्छी लघुकथा है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय चन्द्रेश जी। एक लंबे अरसे के बाद आपकी एक लाज़वाब रचना पढ़ने को मिली। बेहतरीन प्रस्तुति। मेरे विचार से वह लड़का ही भेड़ और बकरी लेकर चंपत हो गया। इसलिये ही भेड़िया भूखा रह गया। लघुकथा बेहद तीखा कटाक्ष छोड़ गयी है।यही तो लघुकथा का अनकहा मर्म है।
आदरणीय चंद्रेश कुमार जी, एक मशहूर कहानी की लघुकथा के रूप में प्रस्तुति अच्छी लगी । आदरणीय नीलेश जी से मैं भी सहमत हूँ – "अंत में भेड़िया भूखा क्यूँ रहा "
आ. चित्रेश जी,
अच्छी कथा हुई है ..
अंत में भेड़िया भूखा क्यूँ रहा यह समझ नहीं पाया मैं.
सादर
वाह/आह....
//“भेड़िया आया... भेड़िया आया...” // ... एक मशहूर कहावत/बोधकथा के कथानक को समसामयिक संदर्भित करते हुए बेहतरीन पटाक्षेप के साथ उम्दा विचारोत्तेजक रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी जी।
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