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ख़ुद को क़िस्सा-गो समझे है हर क़िरदार कहानी में
क़तरा ख़ुद को माने समुन्दर जाने किस नादानी में.
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कैसा हिटलर कौन हलाकू, साहिब गर्मी काहे की
इक दिन सब को जाना है इतिहास की कूड़े दानी में.
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तैर नहीं सकते थे माना लेकिन चल तो सकते थे
डूब मरे हैं कुछ बेचारे टखनों से कम पानी में.
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जादू का इक झूठा कपड़ा पहने फिरते हैं साहिब
और ठगों की पौ-बारह है उनकी इस उर्यानी में.
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पहले जिस के लफ्ज़ लबों के पार न आने पाते थे,
शख्स वही इक सबसे माहिर निकला तल्ख़-बयानी में.
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देख के उन को हमने नकली ग़म का चेहरा पहन लिया,
उन की मुश्किल बढ़ जाती गर मिलते हम आसानी में.
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याद तुम्हे मैं कर लेता हूँ जब जी घुटने लगता है,
डूब के साँसें पा जाता हूँ यादों की तुग्यानी में.
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जानें कब होंगे वो दाना जानें कब वो समझेंगे
वस्ल की रात गुज़र जाती है उनकी आनाकानी में.
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नूर है मंज़िल “नूर” ही राही बस रस्ता अँधियारा है,
दुनिया तुझ में यूँ रहता हूँ जैसे तेल हो पानी में.
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पुछल्ला
दुश्मन दुश्मन चिल्लाते हैं फिर भी गले लगाते हैं
सोचो कैसा स्वाद बसा है मरियम की बिर्यानी में.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. सालिक गणवीर जी.
आपका नम्बर नहीं लग रहा है.
आदरणीय निलेश नूर साहेब
सादर अभिवादन
आपकी ग़ज़ल वाकई शानदार है. शैर दर शैर दाद और मुबारकबाद क़ुबूल करें. बहस तो उससे भी ज़ियादा दिलचस्प है. मेरा व्हाट्सएप नं 9407980637 है अगर उचित समझें तो Hi लिख कर भेंज दें,आपसे बित करना चाहता हूँ आदरणीय.
बेशक,हा हा हा....
आ समर सर,
हम सबने कल ही एक ताज़ी ग़ज़ल सुनी है अतः मेरी कूड़े दानी किसी के काम आने लायक है
धन्यवाद आ बृजेश जी
धन्यवाद आ राम अवध जी
वाकई बड़ी ही अच्छी ग़ज़ल कही है आदरणीय..सादर
आदर्णीय नीलेश जी आपके कहने की शैली सबसे अलग होने के कारण ही सभी शेर पाठक को प्रभावित करते हैं हर शेर खूबसूरत है। बधाई।
आ. समर सर,
ईश्वर आप को लम्बी उम्र दे ...
मुझे भी कोई जल्दी नहीं है .. ;))))))
धन्यवाद आ. मनोज अहसास जी
आप सब भी सिर्फ देखने के अतिरिक्त चर्चा में हिस्सा भी लेंगे तो चर्चा वृहद और सार्थक होगी
आभार
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