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ग़ज़ल "कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे सोचते हुए"

  

221 2121 1221 212

इंसानियत के तंग सभी दायरे हुए।
दिखते नहीं हैं लोग जमीं से जुड़े हुए।।

जो सुर्खियों में रहते हमेशा बने हुए।
रहते है लोग वो ही ज़ियादा डरे हुए।।

आहट हुई जरा सी बुरे वक़्त की तभी।
कुछ साँप आस्तीन से निकले छुपे हुए।।

वो इस लिये खड़ा है बुलन्दी पे आज भी।
डरता नहीं है झूठ कोई बोलते हुए।।

ख्वाबों में देखता हूँ जिसे रोज रात में।
कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे सोचते हुए।।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 13, 2018 at 3:16pm

हार्दिक बधाई..

Comment by Shyam Narain Verma on March 13, 2018 at 10:11am
बहूत खूब, हार्दिक बधाई l सादर
Comment by Mohammed Arif on March 12, 2018 at 4:20pm

आलरणीय सुरेंद्र इंसान जी आदाब,

  •                           ग़ज़ल का प्रयास.बेहद अच्छा मगर अभी और प्रयास की ज़रूरत है । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का तत्काल प्रभाव से संज्ञान लें ।
Comment by Sushil Sarna on March 12, 2018 at 3:37pm

हार्दिक बधाई इस दिलकश ग़ज़ल के लिए आदरणीय।

Comment by Harash Mahajan on March 12, 2018 at 12:05pm

वाह एक बेहतरीन ग़ज़ल आपकी कलम से आदरणीय सुरेंद्र जी । "आहट हुई....." बहुत खूब !! दाद !!

Comment by Samar kabeer on March 12, 2018 at 10:58am

जनाब सुरेन्द्र इंसान जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

"ख़्वाबों में देखता हूँ जिसे रोज़ रोज़ मैं

कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे देखते हुए'

इस शैर में 'देखता' देखते'  और "मैं" शब्द दोनों मिसरों में होने से शैर का हुस्न ख़त्म हो गया है,ऊला इसे यूँ कर सकते हैं। :-

'हर शब जो मेरे ख़्वाब में आता है दोस्तो

कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे देखते हुए'

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 12, 2018 at 7:22am
वाह वाह, डरता नहीं है,, वाह क्या ख़ूब।
बधाई
Comment by रोहित डोबरियाल "मल्हार" on March 11, 2018 at 11:58pm

ख्वाबों में देखता हूँ जिसे रोज रोज मैं।
कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे देखते हुए।।

बहुत ख़ूब ....http://malhars.in/sochta-hun/

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