सबक
देश खोखला होता जाता,आज यहाँ मक्कारों से
सदा कलंकित होता भारत, भीतर के गद्दारों से
लाज शर्म है नहीं किसी को, अपना नाम डुबाने में
मटियामेट करे इज्जत को, देखो आज जमाने में
देश धरा के जो हैं दुश्मन, सबको नाच नचाते हैं
सारी अर्थव्यवस्था को वे, तितर वितर कर जाते हैं
अपनी मर्जी के हैं मालिक, अपना हुक्म चलाते हैं
लूट लूट कर भरे तिजोरी, फिर ये गुम हो जाते हैं
आज व्यवस्था जमीदोज है, हर जुर्मी हैवानों से
कैसे मुक्ति मिले भारत को, इन पाजी शैतानों से
बड़े कुकर्मी कातिल हैं ये, सबकुछ चट कर जाएंगे
अपनी माँ के दामन को ही, नोच नोचकर खाएंगे
नहीं सुरक्षित आज अस्मिता, दम्भी पहरेदारों से
अपनी डोली लुटती जाती, इन जयचंद कहारों से
ताल ठोकने वाले देखो, आज बहुत शर्मिन्दा हैं
मुख पर कालिख पोत रहे जो, बड़े शौक से जिन्दा हैं
देश हितैषी बनने वाले, कब तक गाल बजायेंगे
बीच सड़क पर खड़े कुकर्मी, कब वो मुँह की खाएंगे
आम आदमी जाग गया गर, इनको सबक सिखाएगा
गली गली औ चौराहे पर, जुल्मी मारा जाएगा lll
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद0 डॉ भैया सादर अभिवादन। बढिया ओज युक्त रचना पर मेरी बधाई स्वीकार कीजिये
अच्छे भाव हार्दिक बधाई । भाई समर जी की बात का संज्ञान लें ।
जनाब डॉ.छोटेलल सिंह जी आदाब,देश के हालात को सामने रखते हुए,बहुत उम्दा नज़्म लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
कुछ मिसरों में अनुस्वार लगाना भूल गए आप,देखियेग ।
9वीं पंक्ति में 'जुर्मी' शब्द सही नहीं ,कुछ और देखिये ।
'कैसे मुक्ति मिले भारत को'
इस चरण में लय भंग हो रही है,इसे यूँ कर सकते हैं:-
"कैसे मुक्ति मिले देश को"
'अपनी डोली लुटती जाती'
इस चरण में 'अपनी' का क्या औचित्य है, इसे यूँ कर सकते हैं:-
'नहीं सुरक्षित कोई डोली'
सतविन्द्र जी,ये ग़ज़ल नहीं है ।
सच का कड़वा चिट्ठा। बेहतरीन विचारोत्तेजक सृजन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब डॉ. छोटे लाल सिंह जी।
वाहः वाहः आ छोटे जी उम्दा गजल कही
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