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जब मैं छोटा था

अक्सर गोद पर सवार होकर

देखता था पिता का मुख  

पर तब नही जान पाया

उनका अक्स कहीं छिपा है मुझमे  

आज मेरे बेटे

हो चुके है बड़े

अब मैं तलाशता हूँ

उनके चेहरे पर अपना अक्स

पर अब वे अनजान हैं

किन्तु मैं निराश नही होता   

मेरे पोते को गोद में लिए

मेरा बेटा तलाश रहा है

उसमे अपना अक्स

वह पोता जो नही जानता

अक्स के मायने   

(मौलिक /अप्रकाशित )

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 12, 2017 at 9:30am
आ. भाई गोपालनारायन जी, बेहतरीन रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
Comment by Samar kabeer on November 8, 2017 at 5:07pm
जनाब गोपाल नारायण जी आदाब,बहुत उम्दा कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आख़री पंक्ति में 'मायने'ग़लत शब्द है,सही शब्द है "मा'ना"
Comment by Ajay Tiwari on November 8, 2017 at 10:46am

आदरणीय गोपाल नारायण जी,

इस खूबसूरत और संवेदनशील काव्य-प्रस्तुति के लिए हार्दिक शुभकामनाएं.

सादर 

Comment by SALIM RAZA REWA on November 8, 2017 at 10:25am
आ. ख़ूबसूरत रचना के लिए बधाई
Comment by Kalipad Prasad Mandal on November 7, 2017 at 2:58pm

वाह्ह  यह अक्स भी हर पीढ़ी को अपना अक्स दिखाता रहेगा | सादर नमन आ डॉ गोपाल नायायण श्रीवास्तव जी \

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