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ग़ज़ल - इश्क में जार जार रोते हैं

फाइलातुन मफाइलुन फैलुन
2122 1212 22

रात दिन बार बार रोते हैं।
इश्क में जार जार रोते हैं।

जब नशे में थे हम मज़े में थे,
जब से उतरा खुमार रोते हैं।

प्यार की अब पतंग नहीं उड़ती,
ठप्प है कारोबार रोते हैं।

आप से क्या मियाँ बताये हम
दिल हो जब बेकरार रोते हैं।

जब मैं रोता हूँ साथ में मेरे
सबके सब दोस्त यार रोते हैं।

वक्त बेवक्त उसके हाथों से,
जब भी पड़ती है मार रोते हैं।

अपने अपने सुभाव के कारण,
फूल हँसते हैं खार रोते हैं।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on October 26, 2017 at 5:47pm
जनाब राम अवध जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 26, 2017 at 4:16pm
सलीम रज़ा साहब बहुत बहुत धन्यवाद
Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 26, 2017 at 4:15pm
आदरणीय अफरोज सर इस ग़ज़ल में दोष है मैंआपकी बात से सहमत हूँ। टिप्पणी के लिए सादर आभार
Comment by SALIM RAZA REWA on October 26, 2017 at 3:17pm
आo ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए मुबारक़बाद
Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 26, 2017 at 2:56pm
आदरणीय नीलेश जी आप सही कह रहे हैं ऐबेतनाफुर है लेकिन ग़ज़ल होती चली गई और इस दोष का कोई इलाज नहीं है। मैं भी समझ रहा था फिर ग़ज़ल के मोह जाल में फँस कर पोष्ट कर दिया। आपको बहुत बहुत शूक्रिया।
Comment by Afroz 'sahr' on October 26, 2017 at 2:00pm
आदरणीय राम अवध जी इस रचना पर बधाई आपको ।
काफ़िया और रदीफ़ में मुसलसल तनाफ़ुर हो रहा है। सादर,,,,
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 26, 2017 at 12:04pm

आ. राम अवध जी..
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है ....
क़ाफिये और रदीफ़ में र-र   आने से तकरार हो रही है ...लेकिन ग़ज़ल उम्दा है 
बधाई 

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