वो घर मेरा नहीं ...
कितना कठिन है
अपने घर का पता जानना
लौट जाते हैं
हर बार
आकर भी
घर के पास से हम
किस से पूछें पता
सभी मुसाफिर लगते हैं
अपने घरों से
अंजाने लगते हैं
जानते हैं
ये घर
हमारा नहीं
फिर भी
उसको घर मानते हैं
टूट जाते हैं
जो पत्ते शज़र से
फिर वो शज़र
उनका घर नहीं रह जाता
हो जाते हैं
वो हवाओं के हवाले
घर के पास होते हुए भी
घर से दूर हो जाते हैं
कोई विकल्प नहीं
उनके पास
अपनी यात्रा को
जारी रखने के अतिरिक्त
इस अनंत आवागमन का
कब होगा अंत
ये न पंथ जानता है
न पंथी जानता है
ये मैं
किस घर की धरोहर है
ये व्योम की नाभि में छुपा
अक्षुण्ण कण का
अंतर ही जानता है
मैं तो बस
इतना ही जानता हूँ
कि मैं
जिस घर में
आता और जाता हूँ
वो घर
मेरा नहीं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय निकोर जी सृजन में निहित भावों को अपनी आत्मीय स्वीकृति से प्रोत्साहित करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय बृजेश कुमार जी प्रस्तुति आपके स्नेहिल शब्दों की आभारी है।
आदरणीया कल्पना भट्ट जी रचना के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
अपनी रचना के माध्यम आप आजकल के सच को इतना पास ले आए। बहुत खूब। हार्दिक बधाई, आदरणीय सुशील जी।
आहा | बहुत सुंदर , बहुत ही सही बात कही है आपने आज कल घर घर जैसे नहीं |
टूट जाते हैं
जो पत्ते शज़र से
फिर वो शज़र
उनका घर नहीं रह जाता
हो जाते हैं
वो हवाओं के हवाले
घर के पास होते हुए भी
घर से दूर हो जाते हैं
कोई विकल्प नहीं
उनके पास
अपनी यात्रा को
जारी रखने के अतिरिक्त
बहुत ही भावपूर्ण रचना हुई है आदरणीय सुशिल सरना जी हार्दिक बधाई
आदरणीय मो. आरिफ साहिब सृजन को अपनी मधुर प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय श्याम नारायण जी रचना के भावों को मान देने का हार्दिक आभार।
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सादर |
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