आदतन हर रोज़ सवेरे-सवेरे
बुझते विश्वास की गहरी पीर
मौन विवशता के आवेशों में
बहता मन में निर्झर अधीर
आस-पास लौट आता है उदास
अकस्मात अनजाने तीखा गहरा
गहरे विक्षोभों का सांवला
देहहीन दर्दीला उभार
ज़िन्दगी के अब ढहे हुए बुर्जों में
विद्रोही भावों के अवशेष धुओं में
है फिर वही, फिर वही असहनीय
अजीब बदनसीब अनथक तलाश
नियति के नियामक चक्रव्यूहों में
पुरानी पड़ गई बिखरती लकीरों में
टूटे विश्वास की पीर के आवेगों में
कब पाया था किसी ने ठहराव ?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी।
आदरणीय समर भाई, आप मेरी रचनाओं के मर्म को जिस प्रकार समय देते हैं, अनुभव करते हैं, उससे मेरा मन पिघल जाता है... मैं भाग्यवान हूँ कि आपसे ऐसी प्रशंसा मिली। धन्यवाद, आदरणीय भाई समर जी।
//सच है कब किसी ने ठहराव पाया है । चलते रहने में ही जीवन की सार्थकता है //
रचना के मर्म को छूने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय आरिफ़ भाई।
आदरणीय सुशील जी, आपने इस कविता को जिस प्रकार स्पर्ष किया, लेखक के लिए इससे अच्छा इनाम और क्या हो सकता है।
हार्दिक आभार, आदरणीय।
नियति के नियामक चक्रव्यूहों में
पुरानी पड़ गई बिखरती लकीरों में
टूटे विश्वास की पीर के आवेगों में
कब पाया था किसी ने ठहराव ?
वाह आदरणीय विजय निकोर जी दर्द के नए आयाम , शब्दों में छुपी गहराइयाँ , कल कल करते भाव किस पाठक के मन को भाव विभोर होने से रोक पाएंगे ... इस अनुपम और अद्वितीय प्रवाहमयी प्रस्तुति के लिए हृदयतल से बधाई स्वीकार करें सर। मज़ा आ गया ख़ास कर ''गहरे विक्षोभों का सांवला
देहहीन दर्दीला उभार'' वाली पंक्तियों में। वाह
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