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ये ,कैसा घर है ....

ये ,कैसा घर है ....
ये
कैसा घर है
जहां
सब
बेघर रहते हैं


दो वक्त की रोटी
उजालों की आस
हर दिन एक सा
और एक सी प्यास
चेहरे की लकीरों में
सदियों की थकन
ये बाशिंदे
अपनी आँखों में सदा
इक उदास
शहर लिए रहते हैं
ये
कैसा घर है
जहां सब
बेघर रहते हैं

उजालों की आस में
ज़िन्दगी
बीत जाती है
रेंगते रेंगते
फुटपाथ पे
साँसों से
मौत जीत जाती है
बेरहम सड़क है
भूख की तड़प है
हर मौसम एक सा है
न रात की चिंता है
न सहर का डर है
खुशियों के शानों पर
यहां अश्क ही बहते हैं
ये
कैसा घर है
जहां
सब
बेघर रहते हैं

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशसित

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Comment by Sushil Sarna on February 10, 2017 at 1:54pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी  जी रचना के भावों अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। कुछ दिनों से अस्वस्थ होने के कारण आभार व्यक्त करने में विलम्ब हेतु क्षमा चाहूंगा। 

Comment by Sushil Sarna on February 10, 2017 at 1:54pm

आदरणीय विजय निकोर जी रचना के भावों अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। कुछ दिनों से अस्वस्थ होने के कारण आभार व्यक्त करने में विलम्ब हेतु क्षमा चाहूंगा। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 3, 2017 at 10:04am

आदरणीय सुशील भाई , सताये हुओं की ज़िन्दगी पर अच्छी कविता कही है , हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by vijay nikore on February 3, 2017 at 9:44am

 बहुत ही सुन्दर रचना लिखी है। आपको हार्दिक बधाई, भाई सुशील जी

Comment by Sushil Sarna on February 2, 2017 at 1:24pm

आदरणीय  laxman dhami जी प्रस्तुति पर आपके स्नेहिल शब्दों का हार्दिक आभार।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2017 at 11:43am

ऑ० भाई सुशिल जी बेहतरीन यथार्थवादी रचना हुई है हार्दिक बधाई स्वीकारें .

Comment by Sushil Sarna on February 1, 2017 at 5:31pm

आदरणीय Mohammed Arif  जी प्रस्तुति पर आपके स्नेहिल शब्दों का हार्दिक आभार।

Comment by Mohammed Arif on February 1, 2017 at 5:04pm
आदरणीय सुशील सरनाजी, बेहतरीन रचना , बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sushil Sarna on February 1, 2017 at 12:26pm


आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति को आपने जो आत्मीय मान दिया उसके लिए आपके तहे दिल से शुक्रिया। सर इंगित त्रुटि को मैंने संशोधित कर दिया है। इस हेतु आपका हार्दिक आभार।

Comment by Samar kabeer on January 31, 2017 at 10:23pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत उम्दा और सच्ची कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
23वीं पंक्ति में 'रीत जाती है'को "बीत जाती है"कर लें,शायद टाइपिंग मिस्टेक है ।

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