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ग़ज़ल : जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

देख तेरे संसार की हालत सब्र छूटने लगता है

जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

 

सरकारी खाते से फ़ौरन बड़े घड़े आ जाते हैं

मंत्री जी के पापों का जब घड़ा फूटने लगता है

 

मार्क्सवाद की बातें कर के जो हथियाता है सत्ता

कुर्सी मिलते ही वो फौरन माल कूटने लगता है

 

जिसे लूटना हो कानूनन मज़लूमों को वो झटपट

ऋण लेकर कंपनी खोलता और लूटने लगता है

 

बेघर होते जाते मुफ़लिस, तेरे घर बढ़ते जाते

देख यही तुझ पर मेरा विश्वास टूटने लगता है

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 2, 2016 at 11:50am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय विजय निकोर जी

Comment by vijay nikore on December 16, 2015 at 1:26pm

खूबसूरत गज़ल के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय धर्मेन्द्र जी।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 15, 2015 at 9:44pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 15, 2015 at 12:37am

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 14, 2015 at 11:15pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय जयनित जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 14, 2015 at 11:15pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 14, 2015 at 11:14pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर साहब

Comment by जयनित कुमार मेहता on December 14, 2015 at 1:31pm
बढ़िया है।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 14, 2015 at 11:59am

भाई धर्मेन्द्र जी इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई l

Comment by Samar kabeer on December 14, 2015 at 10:47am
जनाब धर्मेन्द्र जी शानदार ग़ज़ल है मुबा रक् हो|

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