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वो जाग रहे हैं
दिन है फिर भी जाग रहे हैं
अक्सर वो रात में जागते है
अँधेरी और खामोश रात में
अब वो दिन में भी जाग रहे हैं
रात रौशन जो हो रही है
उन्हें एतराज़ है इस बात पर
रात रौशन क्यों है
वो बहुत गुस्से में है
वो बहुत गुस्से में है
वो साबित करना चाहते है
वो भी प्रहरी है
सूखी हुई खेती के
और उसको काटने नहीं देगे
और अपने मुलायम आसान से उतर आये है
वो अनशन भी कर सकते है
उन्हें डायबटीज़ है मानसिक
मीठा नहीं खा सकते
वो रूढ़िवादी भी है
पर वो स्वतंत्र है
आजकल विरोध पर है कारण बताओ नोटिस दिए बिना
अब वो अपनी स्तुति करवाने से मना कर रहे है
उनका विरोध का तरीका उनके पेशे के अनुकूल नहीं है
क्योंकि कलम में बहुत ताकत होती है
अगर सियासत से बची रहे तो


मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Rahul Dangi Panchal on March 13, 2016 at 9:52pm
बहुत सुन्दर भैया जी
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 18, 2016 at 7:47am
बहुत खूब मित्रवर
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on February 12, 2016 at 10:31am
बहुत ख़ूब।कलम की ताकत तभी जब सियासत से बची रहे।बधाई आदरणीय
Comment by मनोज अहसास on October 26, 2015 at 4:15pm
बहुत आभार आदरणीया प्रतिभा जी
सादर
Comment by pratibha pande on October 26, 2015 at 3:53pm

कलम अगर सियासत से बची रहे तो और ये; 'तो'   ही है जो अक्सर 'हो 'नहीं पाता है   सम सामयिक उद्गार ,एकदम सटीक , बधाई इस रचना पर आदरणीय मनोज जी 

Comment by मनोज अहसास on October 26, 2015 at 3:24pm
बहुत बहुत आभार आदरणीया
इस कविता पर कम ही ध्यान गया मंच का
पता नहीं क्यों
शुक्रिया
सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 26, 2015 at 10:12am

सामयिक कविता ... लेकिन कलम में बहुत ताक़त होती है, अगर सियासत से बची रही तो।बहुत खूब  सही कहा, इस तरह विरोध करना  मै तो समझती हूँ साहित्य का अपमान है विरोध करो अपनी कलम के जरिये ..आग भरदो अपनी कलम में ..ऐसे विरोध करो ..वर्ना आपमें और दूसरे धरना परस्त लोगों के बीच फर्क क्या रह जाएगा |बधाई मनोज कुमार जी 

Comment by मनोज अहसास on October 25, 2015 at 4:53pm
आदरणीय
मिथिलेश जी एवम् भाई पंकज जी
बहुत आभार
सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 22, 2015 at 11:49pm

बहुत बढ़िया मनोज भाई जी 

आसान को आसन कर लीजियेगा 

रचना किसी कवि के सियासती हो जाने पर कही गई है क्या ?

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 22, 2015 at 7:58pm
लेकिन कलम में बहुत ताक़त होती है, अगर सियासत से बची रही तो।

बहुत खूब; सलाम हाज़िर है।

बेमोल हो गए हैं अनमोल से नगीने।
कीचड़ में गिर पड़े हैं साहित्य के नगीने।।
जिनको समाज वाले सूरज समझ रहे थे।
अंधियारी रात वाले ग्रह हो गये नगीने।।

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