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आदरणीय मनोज जी अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
न मेरे हिस्से में तेरी झलक थी इक नज़र को भी
बहुत परदे हटाये फिर भी एक पर्दा निकल आया इस में एक को इक करने से प्रवाह सही हो सकता है
जो उसने कह दिया गर वाह बिना समझे ग़ज़ल मेरी
मेरे सिर भी कई अल्फ़ाज़ का खर्चा निकल आया पहले मिसरे को किस तरह पढते है इस पर वाह और बिना निर्भर करेगा नहीं तो वाह के ह को पूरा समय दें तो बिन करने से रुक्न सही हो सकता है
ज़रा सी देर मे सारा फ़साना लिख गए कातिल
बनाई बरसो की बुनियाद पे झगड़ा निकल आया बहुत खूब कई किस्से इससे निकलते है अच्छा चित्रण है बधाई ।
बड़ी मुश्किल में हूँ दिलबर अलग अंदाज़ से तेरे
यूँ कैसे झील सी आँखों में ये सहरा निकल आया ..... वाह वाह क्या बात है मनोज जी क्या विरोधाभास लेकर आये है
ग़ज़ल में मुझको अपनी बात कहने का सलीका दे
ज़रा से इल्म से "अहसास" पर खतरा निकल आया .....अजी कहते रहिये शेर किसी तरह का खतरा नहीं है । दिली दाद कुबूल करिये ।
आदरणीय मनोज भाई , अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ ॥
जो उसने कह/ दिया गर वा/ ह बिना समझे / ग़ज़ल मेरी --- मिसरा तीसरे रुक्न से बेबहर है
और -
है कुछ तो काफ़िया बढ़िया ज़रा मुझमे भी सुस्ती है
बड़ी मुश्किल है के याद का सदमा निकल आया --- इस शेर मे आप क्या हनना चाहतें है , मै नही समझ सका , हो सकता है मेरी समझ ही कम हो , फिर भी एक बार सोच लीजियेगा ॥
बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है आदरणीय मनोज भाई
शेर दर शेर दाद हाज़िर है
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