बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर
ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री
पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते
ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
आँख मूँद जो करें भरोसा सच्चे भक्त कहे जाते
बाकी सब कोसे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
गली गली अंधेर मचा है फिर भी जन्नत की ख़ातिर
सारे के सारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
क्या बात है आदरणीय , बहुत कठिन रदीफ ले कर आपने जिस सरलता से निभा दिया है , काबिले तारीफ है । बेहतरीन ग़ज़ल के लिये आपको दिली बधाइयाँ ।
सुंदर भाव लिए, उत्तम रचना के लिए बधाई .... |
आरणीय धर्मेन्द्र जी बधाई सुन्दर ग़ज़ल हुई है रदीफ ही रदीफ सानी में है फिर भी आपने कथ्य को बहुत ही खूबसूरती से उसमें पिरो लिया है शेर दर शेर दाद कुबुल करें ।
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. काफिया का बढ़िया प्रयोग देखने मिला और रदीफ़ भी क्या खूब ली है. इस रदीफ़ में बहुत बढ़िया बढ़िया शेर निकाले है. आपको इस शानदार ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद के साथ दिल से मुबारकबाद.
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