1222 — 1222 — 1222 — 1222 |
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प्रकाशित और नित् निर्मल जो मन होगा तो क्या होगा? |
हमारा और उनका जब मिलन होगा तो क्या होगा? |
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उन्हें इस बात का आभास हो जाए तो अच्छा है- |
अगर ऐसे ही लोगों का दमन होगा तो क्या होगा? |
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तुम्हारे आगमन तक बस यही सोचा किया हमने |
ख़ुशी का आयतन फिर से सघन होगा तो क्या होगा? |
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अगर साहित्य की दुनिया में केवल नाम पाने को |
सदा यूं ही नक़ल वाला सृजन होगा तो क्या होगा? |
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मुझे मंदिर की घंटी ने सवेरे प्रश्न पूछा है - |
कि मस्जिद में जो मीरा का भजन होगा तो क्या होगा? |
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बड़ी कोमल विधा है ये, सरस सौन्दर्य है, सोचो |
ग़ज़ल में व्यर्थ शब्दों का वमन होगा तो क्या होगा? |
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प्रलय की दोपहर में ये धरा किस रंग की होगी? |
कभी सोचो, अगर पीला गगन होगा तो क्या होगा? |
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नगर जिसमें सभी पाषण मन के लोग रहते हैं, |
मुझे मालूम है मेरा रुदन होगा तो क्या होगा. |
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चले आये हो अपना सच लिए तुम होम करने को |
तनिक ये सावधानी भी, हवन होगा तो क्या होगा? |
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अहम् अपना भुलाकर दो घड़ी बस ध्यान देना तुम |
किसी को मान देकर जब नमन होगा तो क्या होगा? |
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बड़े बदलाव की बातें कहूं पर डर ये लगता है |
चमन होगा तो क्या होगा, वतन होगा तो क्या होगा? |
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कभी ‘मिथिलेश’ कर लेते सुरक्षित संस्कारों को |
स्वयम् से पूछ लो इनका पतन होगा तो क्या होगा? |
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Comment
क्या बात है मिथिलेश जी बहुत खूब ग़ज़ल
आदरणीय मिथिलेश जी
मधुर बह्र में आपके शब्दों का भी माधुर्य । एक और ग़ज़ल पढ़ कर अच्छा लगा ।
हिंदी भाषा ने ग़ज़ल के स्वभाव और प्रवाह में कहीं बाधा नहीं उत्पन्न की वरन एक नया ही अनुभव हुअा । शेर दर शेर साधुवाद स्वीकार करें ।
प्रलय की दोपहर में ये धरा किस रंग की होगी?
कभी सोचो, अगर पीला गगन होगा तो क्या होगा? ..... नया और पहले प्रयोग में नहीं आया बिंब... कल्पना ही की जा सकती है बहुत खूब मिथिलेशजी
तुम्हारे आगमन तक बस यही सोचा किया हमने
ख़ुशी का आयतन फिर से सघन होगा तो क्या होगा? .... इस शेर में प्रतीक्षा का आनंद सहज ही मुख्ारित हो रहा है, वाह
अगर साहित्य की दुनिया में केवल नाम पाने को
सदा यूं ही नक़ल वाला सृजन होगा तो क्या होगा? .... आश्वस्त रहें पाठक सूप का कार्य करता है उस कचरे को बुहार कर बाहर कर देगा एक कवि की चिंता सहज है उसको स्वर देने के लिये आभार
नगर जिसमें सभी पाषण मन के लोग रहते हैं,
मुझे मालूम है मेरा रुदन होगा तो क्या होगा. .... विवशता की सुंदर प्रस्तुति बकौल गालिब ... कासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखू मैं जानता हूँ जो वो लिखेगें जवाब में
और आखिरी शेर
कभी ‘मिथिलेश’ कर लेते सुरक्षित संस्कारों को
स्वयम् से पूछ लो इनका पतन होगा तो क्या होगा? आपकी चिंता विचारणीय है मिथिलेश जी कविता में केवल रचना का सुख ही नहीं सामाजिक दायित्व बोध भी साथ चल रहा है ।
चलते चलते मतले पर भी कुछ कहने का मन हो रहा है । ग़ज़ल का रदीफ ही प्रश्न के रूप में साथ साथ चल रहा है इस लिये मतला स्वीकार है । अन्यथा प्रथम मिसरे में ''प्रकाशित और नित निर्मल'' स्वभाव के साथ दूसरे मिसरे में ''मिलन की आकांक्षा'' के परिणाम पर प्रश्न चिह्न लगना सैद्धातिंक दृष्टि से असहज हो सकता है । यह हमारा विचार है आशा है अन्यथा नहीं लेगें ।
पूरी ग़ज़ल के लिये एक बार फिर से हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार करें । सादर
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