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हम छोटे छोटे थे 

जब माँ 

कोयले की राख़ से 

गोले बनाती थी 

हम भी बैठे बैठे 

गोले बनाते थे 

ये वाला मेरा 

ये वाला तेरा 

मेरा गोला ज्यादा मोटा 

तेरा वाला पतला गोला 

धूप मे गोले 

फैला दिये जाते 

सूरज अपनी तपन से 

हवा अपने वेग से 

गोले को सूखा देते 

शाम को अम्मा 

उन्हे उठाती 

तब भी हम लड़ते 

ये तेरा वाला 

ये मेरा वाला 

अंगीठी मे एक एक करके 

गोले जलाये जाते 

ये तेरा वाला गया 

ये मेरा वाला गया 

आज जब माँ नहीं है 

गोला नहीं है 

अंगीठी भी नहीं है 

तेरा वाला नहीं है 

मेरा वाला नहीं है 

बस दहक रहा हूँ  आग मे 

खाक होने की आस मे 

( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 10, 2015 at 8:41pm

बहुत सुंदर भाव. बधाई आदरणीय आमोद जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 10, 2015 at 10:44am
सुन्दर स्मृतियाँ, आदरणीय आमोद कुमार जी , बधाई , सादर।

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