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खेल और उसका खेला

 शाम हो रही है 

सूरज का तेज अब 

मध्यम होता जा रहा है 

शाम और खेल 

का बड़ा अनूठा 

सायोंग है 

अब बस याद ही है 

खेल और उसका खेला की 

एक खेल था 

ऊंच-नीच 

समान्यतः यह खेल घर

के आँगन मे ही 

खेलते थे, चबूतरे पर 

नाली की पगडंडियों पर 

हम सब ऊपर रहते थे 

और चोर नीचे 

हमे अपनी जगह बदलनी होती थी

और चोर को हमे छूना होता था 

अगर छु लिया तो 

चोर हमे बनना होता था 

बड़ा मजा था 

कई बार तो हम जान बूझकर 

चोर बन जाया करते थे 

मज़े के लिए 

आखिर खेल ही तो था 

आज भी ऊंच-नीच का खेल 

खेल रहे हैं हम सब

वो ऊंच हैं वे नीच हैं 

मगर आँगन मे नहीं 

मन मे 

खेल तो खेल है 

और उसका अपना मज़ा है ... 


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Amod Kumar Srivastava on July 8, 2015 at 7:32am

आदरणीय Saurabh Pandey जी बहुत बहुत धन्यवाद आपके दिशा निर्देश के लिए मैं प्रयास करूंगा ... 

Comment by Amod Kumar Srivastava on July 8, 2015 at 7:31am

आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आपको धन्यवाद ... 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2015 at 5:35pm

आप संयत प्रयास करें आदरणीय. कविताई की समझ है. वह प्रयास मांगती है. बशर्ते आप गंभीर हों.
शुभकामनाएँ

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 20, 2015 at 1:12pm

अच्छी कोशिश , बढ़िया .

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