कितना कम चाहिए
नून, तेल, गुड के अलावा
फिर भी मिल नही पाता
मुंह बाये आ खड़ी होती है
लाचारी सी हारी-बीमारी
डागदर-दवाई में चुक जाती है
जतन से जोड़ी रकम
जबकि हमारी इच्छाएं है कितनी कम...
कितना कम चाहिए
रोटी और कपड़े के अलावा
फिर भी मिल नही पाता
आ धमकता वन-करमचारी
थाने का सिपाही
या अदालत का सम्मन
और हम बेमन
फंसते जाते इतना
कि छूटते इनसे बीत जाती उमर
दीखती न मुक्ति की कोई डगर.....
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
बहुत सघन पंक्तियाँ. एक आम आदमी के संघर्ष को सार्थक करती, रचना. बधाई आदरणीय अनवर साहब
निसंदेह मानव-संघर्ष को बहुत सटीकता से शब्द दिए हैं आपने पर कई जगह टंकन त्रुटी दिखाई दे रही है हो सकता है डागदर कहना ज्यादा सही हो पर कई जगह चन्द्रबिन्दु बिंदु से प्रतिस्थापित लग रहे हैं |कृपया देख लें |
आदरणीय अनवर सुहैल जी, बहुत सुन्दर रचना , बहुत बहुत बधाई, सादर।
बहुत सुन्दर ,,,कितना कम चाहिए
रोटी और कपड़े के अलावा
फिर भी मिल नही पाता
आ धमकता वन-करमचारी
थाने का सिपाही
या अदालत का सम्मन
और हम बेमन
फंसते जाते इतना
कि छूटते इनसे बीत जाती उमर
दीखती न मुक्ति की कोई डगर....,,,सच है कोई कितने ऊँचे पोस्ट पर क्यूँ न हो,,,आवश्यकताओं की पूर्ति कभी नही हो सकती |
आपको ,,हार्दिक बधाई|
आ० मित्र
इतने कम शब्दों में आपने मनुष्य के वैवश्य की पूरी दास्ताँ कह डाली i सादर i
प्रणाम! आदरणीय,पूरी कविता आम आदमी की जिंदगी का कटु सत्य ब्यान करती हुई... लाजवाब कविता ...कब मिलेगी मुक्ति की कोई डगर..कैसे मिलेगी..इस प्रश्न उत्तर अधुरा ही रह गया...शायद आपकी अगली कविता में मिल जाये..प्रश्न करने के दुश्साहस के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ..आदरणीय प्रश्न मन में रह गया सो आग्रह किया है!!
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