राजा बहुत हैं, शतरंज के इस खेल में,
इनक़लाब का शोर कब तक मचाओगे ?
अभाव बहुत हैं, अंधेरों के इस खेल में ,
गीत उजियारो के कब तक सुनाओगे ?
तलवारें बहुत हैं, अधर्म के इस खेल में,
भाई-भाई का नारा कब तक लगाओगे ?
सयानें बहुत हैं, राजनीति के इस खेल में,
मूर्ख किसको और कब तक बनाओगे ?
किसने क्या पाया ,माया के इस खेल में,
घर जला अपना जश्न कब तक मनाओगे ?
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
रचना पर आपकी उपस्तिथी एवम बधाई पर आपका हार्दिक आभार , सोमेश भाई !
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी, रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु सादर धन्यवाद !
हरि प्रकाश जी
बहुत उम्दा ! बधाई हो आदरणीय i
आदरणीय हरिप्रकाश सर जी , कमेंट पोस्ट होने पर विदित हुआ कि आपके नाम के बाद का जी छूट गया है ,यह केवल मुद्रण-त्रुटि है |मेरे मन में आपके लिए अपार सम्मान है |सादर
अभाव बहुत हैं, अंधेरों के इस खेल में ,
गीत उजियारो के कब तक सुनाओगे ?
आदरणीय हरिप्रकाश , कलिकाल की विडम्बनाओं का बख़ूबी समावेश करती हुई ,शानदार रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई |सादर अभिनन्दन |
भाई जी अंधे और मूढ़-मति हुए लोग अपना घर जला रहे हैं ,आँखे बंद किए अनुसरण कर रहे हैं ,पर एक लेखक का काम इसी अंधरे से लड़ना है ,सद्प्रयास पर बधाई
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