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"घर जला अपना जश्न कब तक मनाओगे"

राजा बहुत हैं, शतरंज के इस खेल में,

इनक़लाब का शोर कब तक मचाओगे ?

 

अभाव बहुत हैं, अंधेरों के इस खेल में ,

गीत उजियारो के कब तक सुनाओगे  ?

 

तलवारें बहुत हैं, अधर्म के इस खेल में,

भाई-भाई का नारा कब तक लगाओगे ?

 

सयानें बहुत हैं, राजनीति के इस खेल में,

मूर्ख किसको और कब तक बनाओगे  ?

 

किसने क्या पाया ,माया के इस खेल में,

घर जला अपना जश्न कब तक मनाओगे ?

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

Views: 637

Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on January 2, 2015 at 7:00pm

रचना पर आपकी उपस्तिथी एवम बधाई पर आपका हार्दिक आभार , सोमेश भाई !

Comment by Hari Prakash Dubey on January 2, 2015 at 6:25pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर जी, रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु  सादर धन्यवाद ! 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 2, 2015 at 2:19pm

हरि प्रकाश जी

बहुत उम्दा  ! बधाई हो आदरणीय i

Comment by khursheed khairadi on January 2, 2015 at 11:58am

आदरणीय हरिप्रकाश सर जी , कमेंट पोस्ट होने पर विदित हुआ कि आपके नाम के बाद का जी छूट गया है ,यह केवल मुद्रण-त्रुटि है |मेरे मन में आपके लिए अपार सम्मान है |सादर 

Comment by khursheed khairadi on January 2, 2015 at 11:55am

अभाव बहुत हैं, अंधेरों के इस खेल में ,

गीत उजियारो के कब तक सुनाओगे  ?

आदरणीय हरिप्रकाश , कलिकाल की विडम्बनाओं का बख़ूबी समावेश करती हुई ,शानदार रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई |सादर अभिनन्दन |

Comment by somesh kumar on January 2, 2015 at 11:02am

भाई जी अंधे और मूढ़-मति हुए लोग अपना घर जला रहे हैं ,आँखे बंद किए अनुसरण कर रहे हैं ,पर एक लेखक का काम इसी अंधरे से लड़ना है ,सद्प्रयास पर बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 2, 2015 at 10:56am
सुन्दर रचना , बधाई , आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी, सादर।

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