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ग़ज़ल : समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था

बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२

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अपनी मिठास पे उसे बेहद गरूर था

समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था

 

मृगया में लिप्त शेर को देखा जरूर था

बकरी के खानदान का इतना कसूर था

 

दिल्ली से दिल मिला न ही दिल्ली में दिल मिला

दिल्ली में रह के भी मैं यूँ दिल्ली से दूर था

 

शब्दों में विश्व जीत के शब्दों में छुप गया

लगता था जग को वीर जो शब्दों का शूर था

 

हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें

लेकिन नहीं बिका जो कभी, कोहिनूर था

 

शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल

दिन में पिये जो अश्क़ ये उनका सुरूर था

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 17, 2015 at 6:54pm

बहुत बहुत शुक्रिया गोपाल नारायन जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 17, 2015 at 6:54pm

आपका आशीर्वाद मिला तो शे’र सार्थक हो गया। तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय योगराज जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 17, 2015 at 6:53pm

बहुत बहुत धन्यवाद somesh kumar जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 17, 2015 at 6:53pm

धन्यवाद  ajay sharma जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 17, 2015 at 6:53pm

बहुत बहुत शुक्रिया  JAWAHAR LAL  जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 13, 2014 at 7:44pm

वाह बहुत खूबसूरत अश'आर हैं आदरणीय  धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी, बधाई स्वीकार है।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 12, 2014 at 8:44pm

हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें

लेकिन नहीं बिका जो कभी, कोहिनूर था

 

शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल

दिन में पिये जो अश्क़ ये उनका सुरूर था

-----बहुत बहुत शानदार ग़ज़ल लिखी है आ० धर्मेन्द्र जी बहुत बहुत बधाई 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 12, 2014 at 11:49am

आदरणीय भाई धर्मंद्र जी इस बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 11, 2014 at 9:42pm

आदरणीय धर्मेंद्र जी इस ग़ज़ल के हर शेर के लिये दिल से बधाई प्रेषित है

Comment by saalim sheikh on December 10, 2014 at 10:21pm

 

शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल

दिन में पिये जो अश्क़ ये उनका सुरूर था

बहुत खूब। 

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