बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२
फिर मिल जाये तुम्हें वही रस्ता, रुक जाना
ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना
उनके दो ही काम दिलों पर भारी पड़ते
एक तो उनका चलना औ’ दूजा रुक जाना
दिल बंजर हो जाएगा आँसू मत रोको
ख़तरनाक है यूँ पानी खारा रुक जाना
तोड़ रहे तो सारे मंदिर मस्जिद तोड़ो
नफ़रत फैलाएगा एक ढाँचा रुक जाना
पंडित, मुल्ला पहुँच गये हैं लोकसभा में
अब तो मुश्किल है ‘सज्जन’ दंगा रुक जाना
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
मिथिलेश जी आपकी टिप्पणी मुझे अन्यथा नहीं लगी :)
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई जी आपकी ग़ज़ल पर प्रतिक्रिया के बाद ये ग़ज़ल कई बार गुनगुनाई... आपने सही कहा बह्र पकड़ में आने में थोड़ा समय लगता है..आखिर में बह्र पकड़ में आ गई... (ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर) संकलन में आपकी कई बेहतरीन गज़लें पढ़ चूका हूँ....इसलिए आशंका तो थी कि बह्र मैं ही नहीं पकड़ पा रहा हूँ.... लेकिन पहले प्रयास की असफलता उस टिप्पणी का कारण बनी...आपने बह्र बदलने की जो बात कही है उसके हवाले से निवेदन है कि मैंने बह्र बदलने नहीं कहा है सिर्फ एक पाठक की हैसियत से अपनी राय साझा की है ...और निवेदित भी किया है मेरे हिसाब से ....... खैर बहरहाल आपको टिप्पणी अन्यथा लगी उसके लिए क्षमा चाहता हूँ. वह केवल त्वरित प्रतिक्रिया का परिणाम थी. सादर
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ गिरिराज भंडारी जी
बहुत बहुत धन्यवाद umesh katara जी
बहुत बहुत शुक्रिया बागी जी
ग़ज़ल पसंद करने के लिए शुक्रिया मिथिलेश जी।
बह्र दर’असल अपनी अपनी पसंद की बात है। किसी को कोई ख़ास बह्र अच्छी लग जाना कोई बड़ी बात नहीं है। कुछ लोगों को एक बह्र की गेयता दूसरी बह्र से बेहतर लग सकती है। इसके कारणों पर बहस हो सकती है लेकिन ग़ज़लकार किसी भी बह्र में ग़ज़ल कहने के लिए स्वतंत्र होता है। ग़ज़ल कहने के बाद ग़ज़ल की बह्र बदलने के लिए कहना अर्थहीन है। किसी दूसरे को आप वाली बह्र की गेयता कम लग सकती है। बहरहाल अगर बह्र न टूटे तो गेयता में कहीं से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, हाँ ये हो सकता है कि जब आप पहली बार किसी बह्र से रू-ब-रू हों तो आपको उसकी गेयता पकड़ने में थोड़ा समय लगे।
आशा है आपकी शंका का समाधान हो गया होगा।
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद डॉ गोपाल नारायन जी
शुक्रिया JAGDISH PRASAD जी
बहुत बहुत शुक्रिया Hari Prakash Dubey जी
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