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सिसकियों से सींची

टूटी ज़िन्दगी बार-बार जीने के बाद

पंख कटे रक्ताक्त पंछी-सी मैं

भूल चुकी हूँ

क्या होती है नि:सीम मैदानों में

सुखद उड़ान

इतने बड़े-बड़े दर्द ...

समस्याएँ समस्याएँ नहीं रहीं

या, सुन्न हो गई है मेरे लिए

उनकी पहचान?

आसमानी बिजली की गरजन ...

भीतर के शोर से रहूँ निर्बन्ध

या, ज्वालाओं-से बढ़ते बाहर के शोर को

मजबूर, निरन्तर प्रतिपल आने दूँ अंदर?

टूट गए गुमसुम संकल्प सारे

या, संकल्पों से टकराती, अकुलाती

पराजित, टूट गई मैं

टूटा पहले कौन ?

बाँये हाथ को सहारा

था दाहिने हाथ का

कट गए हों हाथ 

तो किसका सहारा कौन ?

मेरे हाथ तुम्हारे कंधे पर कभी

तुम्हें अच्छे लगते थे न ?

अब ... ?

अधसूखे घाव

अनबनी-अधबनी ज़िन्दगी की टोकरी

मेरे पास न तुम्हारा कंधा है

न रही तुम्हारे पास

मेरी पराई हुई बाहें

मेरे दीप्तिमान रत्न

लोट-लौट आते हैं सदा के ही प्रश्न

कैसे खोलूँ मैं ज़िन्दगी के किवाड़

बंद है, और तंग है, दरवाज़े के पीछे

बंद कमरे की घुटन

.

 -- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by vijay nikore on November 11, 2014 at 1:31pm

रचना को समय देने के लिए, उसकी सराहना के लिए, और उस पर अपने विचार देने के लिए आप सभी का हार्दिक आभार।

Comment by Vindu Babu on October 31, 2014 at 8:47pm
सच बताउं आदरणीय,जब भी आपकी रचनाएँ पढ़ती हूँ, P.B. Shelley की पंक्ति अनायास ही याद आ जाती है। बिलकुल सही ही तो कहा है उन्होंने-
"...
Our sweetest songs are those that tell of saddest thought."
रचना मार्मिक है...बड़ी अच्छी लगी।
सादर बधाई आपको इस स्पर्शी प्रस्तुति के लिए।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 31, 2014 at 12:08pm

मनोमालिन्य के वेग में आया अतिरेक ही सान्द्र व्यथा के तीव्र घूर्णन का कारण होता है, आदरणीय विजय निकोर जी. एकाकी व्यथा शाब्दिक हुई है.

आपकी रचनओं से निस्सृत पीड़ा ’परवेसिव’ हुआ चाहती है. यही उसका हेतु है, यही उसकी प्राप्ति है. इस तौर पर, आदरणीय, रचना वस्तुतः सफल है. आपके इस संप्रेषण के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ.

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 29, 2014 at 11:48am

टूट गए गुमसुम संकल्प सारे

या, संकल्पों से टकराती, अकुलाती

पराजित, टूट गई मैं

टूटा पहले कौन ?

बाँये हाथ को सहारा

था दाहिने हाथ का

कट गए हों हाथ 

तो किसका सहारा कौन ?

मेरे हाथ तुम्हारे कंधे पर कभी

तुम्हें अच्छे लगते थे न ?

अब ... ?

हर बार की तरह ये रचना भी दिल में टीस उठाने के लिए काफी है न जाने इतना दर्द कहाँ से आता है आपकी रचनाओं में जो पाठकों   को भी सोचने को मजबूर कर देता है .......यही सोच रही हूँ .......

Comment by Priyanka singh on October 28, 2014 at 12:12am

अधसूखे घाव ......हाँ यहीं तो हैं ....वक़्त की पपड़ी पड़ जाती है जिन पर ....पर वो घाव हरे ही रहते है जो अक्सर यादों की छोटी सी भी छीलन से रिसने लगते है ....सर हर बार की तरह निशब्द हूँ ....उदास हो गयी हूँ और कुछ याद आ गया 

 आपकी लेखनी को नमन .....नमन ......नमन ......

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 27, 2014 at 2:04pm

निकोर जी

पुनः एक दर्दीली प्रस्तुति  i  शुरू से लेकर अंत तक रचना में कसाव है i समझ में नहीं आता कौन सा उद्धरण सराहूँ i अंत में सार  पर ही आता हूँ -  

मेरे दीप्तिमान रत्न

लोट-लौट आते हैं सदा के ही प्रश्न

कैसे खोलूँ मैं ज़िन्दगी के किवाड़

बंद है, और तंग है, दरवाज़े के पीछे

बंद कमरे की घुटन-----------------------------------अदभुत !

 

Comment by Shyam Narain Verma on October 27, 2014 at 11:51am

 वाह...बहुत संवेदनशील अभिव्यक्ति...

आपको तहे दिल बधाई , सादर

 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 27, 2014 at 10:16am

आपकी रचना बिलकुल अधसूखे घाव की तरह है, मन को झंझोड़ रही है. नमन आपकी लेखनी को आदरणीय विजय जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on October 27, 2014 at 3:09am
श्रद्धेय, बहुत दिनों बाद आपकी रचना पर आया हूँ. अभी दीयों की बाती बुझी नहीं है, फुलझड़ी और अनार के उच्छ्वास में कमी नहीं आई है - यह अंधकार का गान क्यों ? मेरी आह का अनर्थ न लीजिएगा. सादर.
Comment by Dr. Vijai Shanker on October 27, 2014 at 1:28am

आदरणीय विजय निकोर जी ,कुछ क्लिष्ट मगर सुन्दर रचना  है।    बहुत बहुत बधाई । 

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