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उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..

उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..

कहते हैं इंसान स्वयं को

पर इंसानियत को समझ ना पाएँ I



जिस माँ ने पाल-पोसकर

इनको इतना बड़ा बनाया

बाँधकर उनको जंज़ीरों में

जाने कितने बरस बिताएँ I

उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..



तेईस बेंचों की कक्षा इनको

भीड़ भरा इक कमरा लगती

पर डिस्को जाकर

हज़ारों की भीड़ में

अपना जश्न खूब मनाएँ I

उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..



कॉलेज में नेता के आगे

बाल मज़दूरी पर

वाद विवाद कराएँ

और… Continue

Added by Veerendra Jain on October 30, 2010 at 5:30pm — 3 Comments

ग़ज़ल-तेरा लोटा तेरा चश्मा

ग़ज़ल



कहूँ कैसे कि मेरे शहर में अखबार बिकता है

डकैती लूट हत्या और बलात्कार बिकता है |



तेरे आदर्श तेरे मूल्य सारे बिक गए बापू

तेरा लोटा तेरा चश्मा तेरा घर-बार बिकता है |



बड़े अफसर का सौदा हाँ भले लाखों में होता हो

सिपाही दस में और सौ में तो थानेदार बिकता है |



वही मुंबई जहाँ टाटा अम्बानी जैसे बसते हैं

वहीं पर जिस्म कईओं का सरे बाज़ार बिकता है |



चुने जाते ही नेता सारे… Continue

Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 3:24pm — 12 Comments

ग़ज़ल : कम रहे आखिर



पांव रिश्तों के जम रहे आखिर

हम हकीकत में कम रहे आखिर |



जिनके दिल पर भरोसा पूरा था

उनके हाथों में बम रहे आखिर |



तीर उस ओर थे दिखाने को

पर निशाने पर हम रहे आखिर |



दिन में लगता है भोग पंचामृत

शाम को पी तो रम रहे आखिर |



सच कहे और लड़े सिस्टम से

उसमे दम तक ये दम रहे आखिर |





नोट संसद में जेल में हत्या

काम के क्या नियम रहे आखिर |



जाने क्यूँ महलों तरफ… Continue

Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 2:30pm — 6 Comments

दिखने वाले कलमकार के रूतबे

बदलते समय के साथ पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में कई बदलाव आए हैं और बाजार में जब से पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आई है, तब से लिखने वाले कलमकारों की रूतबे कहां रह गए हैं, अब तो दिखने वाले कलमकारों का ही दबदबा रह गया है। सुबह होते ही काॅपी, पेन और डायरी लेकर निकलने वाले कलमकारों के क्या कहने, वैसे तो ऐसे लोग अपनी पाॅकिट में कलम रखना नहीं भूलते, लेकिन यह जरूर भूले नजर आते हैं कि आखिर वे लिखे कब थे। लोगों को अपनी कलम की धार दिखाने उनके लिए जुबान ही काफी है, जहां से बड़ी-बड़ी बातें निकलती हैं। ऐसे में… Continue

Added by rajkumar sahu on October 30, 2010 at 11:54am — 1 Comment

सर्दियाँ

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
अपने चेहरे के उजालों की तीलियाँ लेकर
लौट आयीं हैं यहाँ सर्द हवाएं फिर से

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
ताप लें रूह में जमी यादें
सुखा लें आंसुओं की सीलन को..

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
एक रिश्ते की आंच से शायद...
कोई नाराज़ दिन पिघल जाये...

Added by Sudhir Sharma on October 29, 2010 at 11:30pm — 6 Comments

का भाई जी ध्यान बा न ?

का भाई जी ध्यान बा न ?

बड़ा ही अजीब शब्द है,लेकिन आजकल धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है भैया.....ये शब्द मानो लोगो की परछाई बन के चिपक सी गयी है ......जी ये शब्द है चुनावी महाकुम्भ में डुबकी लगाने के वास्ते उतरे हुए उम्मीदवारों के ...राह चलते हुए किसी पहचान वाले को देख लिए तो जल्दी से गाड़ी रुकवाते है ...और हाथ जोड़ते हुए कहते है "का भाई जी ध्यान बा न?" या "का जी बाबा तनी हमरो पर ध्यान देब"

कुछ भी कहा जाये पर बिहार के उन जिलो में चुनावी महापर्व रंग ला रहा है, जहा अभी चुनाव होना बाकि है.… Continue

Added by Ratnesh Raman Pathak on October 29, 2010 at 6:00pm — 1 Comment

यह दावा किसके दम पर ?

अक्सर कहा जाता है कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है और राजनीति भी इससे जुदा नहीं है। राजनीति में भी कई बार अनिश्चितताओं के दौर से राजनेताओं को गुजरना पड़ता है और वे जो चाहते हैं, वह सब नहीं होता तथा परिणाम उलट हो जाता है। ऐन चुनाव के पहले कई तरह के दावे उंची शाख रखने वाले नेताओं द्वारा किया जाता है, मगर जब नतीजे सामने आते हैं तो उन्हीं नेताओं के पैरों तले जमीं खिसक जाती है या यूं कह,ें सभी दावे की हवा निकल जाती है और मतदाताओं के रूख के आगे नेताओं के दावे बौने साबित हो जाते हैं। बावजूद कई नेता… Continue

Added by rajkumar sahu on October 29, 2010 at 10:54am — 1 Comment

तुम हो कौन ?

आकाश के उस कोने मे जहाँ मेरी दृष्टि की सीमा है….

देखता हूँ किसी ना किसी पक्षी को नित्य ही ….

क्या यह मेरा अरमान है ?

एकाकी ही दूर तक उड़ते जाना.. सत्य की खोज मे….

क्या यह मेरे मन का भटकाव है ?



कभी उत्साह की बरसात होती है…

आशाओं का सवेरा

मन के अंधेरे को झीना कर जाता है…..

और तब दिखते हो तुम मुझे,

आनंद मे नहाए एकदम तरोताज़ा

सूरजमुखी का एक फूल…

यह नही है कोई भ्रम या भूल.



वर्जनाओं के कड़े पहरे मे

जब दीवाले कुछ मोटी होजाती… Continue

Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 29, 2010 at 9:00am — 1 Comment

तुम हो तो...

छुवन तुम्हारी यादों की भी न्यारी लगती है....

तुम हो तो यह सारी दुनिया प्यारी लगती है...



मन खोया रहता है तुम मे...

तुम हो मेरे अंतर्मन मे....

तुम से उत्प्रेरित मेरा मन...

तुमको करता नमन समर्पित

जीवन हो तुम. जीवन-धन भी,

सांसो मे तुम धड़कन मे भी...

दृष्टि तुम्हारी घोर तमस को झीना करती है...

तुम हो तो यह सारी दुनिया प्यारी लगती है...



क्या अंतर जो नही पास मे...

तुम हो मेरी सांस-सांस मे...

नेत्र बंद होते ही मेरे...

तुम…
Continue

Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 28, 2010 at 10:00pm — 1 Comment

निर्जला....

पूरा दिन यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने

हंसके डिब्बे में रखी थी परमल... फेवरेट थी मेरी...

मैंने ऑफिस में उड़ाई थी पराठों के संग

तुमने एक दिन में ही जन्मों का सूखा काटा था...

औंधी दोपहरी कहीं टांग दी थी खूँटी से...

और फिर रात को पीले मकान की छत पर...

चाँद दो घंटे लेट था शायद...

चांदनी छानकर पिलाई थी...

पूरा दिन,यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने

आज भी रक्खा है...वो दिन मेरे सिरहाने कहीं...

Added by Sudhir Sharma on October 28, 2010 at 9:22pm — 5 Comments

ऐसा हो नहीं सकता

ऐसा हो नहीं सकता



मेरी राख़ को दुनियां वालो

गंगा में ना बहाना

प्रदूषित हो चुकी बहुत

और उसे ना बढ़ाना

करम अगर होंगे अच्छे

तो मिल जाएगी मुक्ति

गंगा जी में बहाने से ही

मुक्ति नहीं मिल सकती

यह है सब बेकार की बातें

ऐसा हो नहीं सकता

किसी के कुकर्मों का अंत

इतना सुखद नहीं हो सकता

गर ऐसा हो जाता

तो हार कोई पापी तर जाता

पाप करने से यहाँ

कोई ना घबराता

कोई ना घबरा----



दीपक शर्मा… Continue

Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 28, 2010 at 5:30pm — 2 Comments

फूल और मैं

मैंने फूलों को तोड़ा
सुखा दिया रखकर उसे
किताबों के दो पन्नों के बीच
फिर पंखुड़ी -पंखुड़ी अलग कर दी
फिर पैरो से कुचल दिया ॥
मगर ....
खुशबू नहीं मरी ॥

एक मैं हूँ ..दोस्तों
किसी इंसान के
ज़बान से शब्द फिसले क्या
तूफ़ान मचा देता हूँ
तुरंत अपने को
हैवान बना लेता हूँ ॥

Added by baban pandey on October 28, 2010 at 11:35am — No Comments

मुक्तिका: यादों का दीप -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:



यादों का दीप



संजीव 'सलिल'

*

हर स्मृति मन-मंदिर में यादों का दीप जलाती है.

पीर बिछुड़ने से उपजी जो उसे तनिक सहलाती है..



'आता हूँ' कह चला गया जो फिर न कभी भी आने को.

आये न आये, बात अजाने, उसको ले ही आती है..



सजल नयन हो, वाणी नम हो, कंठ रुद्ध हो जाता है.

भाव भंगिमा हर, उससे नैकट्य मात्र दिखलाती है..



आनी-जानी है दुनिया कोई न हमेशा साथ रहे.

फिर भी ''साथ सदा होंगे'' कह यह दुनिया भरमाती है..



दीप… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 28, 2010 at 10:08am — 2 Comments

मुक्तिका: सदय हुए घन श्याम -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका





सदय हुए घन श्याम





संजीव 'सलिल'

*

सदय हुए घन-श्याम सलिल के भाग जगे.

तपती धरती तृप्त हुई, अनुराग पगे..



बेहतर कमतर बदतर किसको कौन कहे.

दिल की दुनिया में ना नाहक आग लगे..



किसको मानें गैर, पराया कहें किसे?

भोंक पीठ में छुरा, कह रहे त्याग सगे..



विमल वसन में मलिन मनस जननायक है.

न्याय तुला को थाम तौल सच, काग ठगे..



चाँद जुलाहे ने नभ की चादर बुनकर.

तारों के सलमे चुप रह बेदाग़… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 28, 2010 at 10:06am — 1 Comment


प्रधान संपादक
सलाम (लघुकथा)

सूरज ने फक्कड़ से कहा:

"मुझे झुक कर सलाम कर !"

"तुझे सलाम करूं ? मगर क्यों?"

"ये दुनिया का दस्तूर है, चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं !"

"करते होंगे, मगर मैं तेरे आगे सिर नहीं झुकऊँगा !"

"मगर क्यों ?"

"क्योंकि तू बहुत कमज़ोर और निर्बल है, जिस दिन सबल हो जाएगा मैं तेरे आगे सर ज़रूर झुकाऊंगा !"

"कमज़ोर और निर्बल ? और वो भी मैं ?"

"हाँ !"

"तो अगर मैं ये साबित कर दूं कि मैं सबल हूँ, तो क्या तुम मुझे सलाम करोगे?"

"एक बार नही सौ सौ बार सिर झुकाकर सलाम…

Continue

Added by योगराज प्रभाकर on October 28, 2010 at 9:30am — 42 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
जिजीविषा

नीरव-गुमसी चट्टानों पर

कटी-पिटी उभरी रेखाएँ

उन्मत्त काल का

हिंस्र वज्र-नख

जगह-जगह से नोंच गया है..।



अभिलाषा है कुछ विक्षिप्त

स्वप्न बच गए जूठे-जूठे

मसले थकुचे नुचे-चुथे से

स्वप्न बच गए जूठे-जूठे



धूसर उपलों की धूप तापती

विवश बिसुरती ध्वनि अकेली

अशक्त नव-जन्मी बाला-सी पसरी..

उठा सके बस भार श्वाँस का निश्चय का जी तोड़ परिश्रम..



कि,

मुँदी

उठी

झपकी

ठिठकी

रुक-ठहर

परख

तकती... .. तबतक… Continue

Added by Saurabh Pandey on October 28, 2010 at 6:00am — 3 Comments

ग़ज़ल:भूख करप्शन

भूख करप्शन महंगाई बेकारी है

कैसी आगे बढ़ने की लाचारी है |



ट्यूशन के पैसे से पिक्चर देख रहे

अपने ही मुस्तकबिल से गद्दारी है |



वृद्धावस्था पेंशन पर दिन काट रही

बड़े हुए बच्चों की माँ बेचारी है |



काँटों का इक ताज सूली ले आओ

मेरी ईसा बनने की तैयारी है |



साठ साल से हरा भरा फल फूल नहीं

पौधे की जड़ में कोई बीमारी है |



आप कहाँ से इतनी खुशियाँ ले आये

क्या कुर्सी से आपकी रिश्तेदारी है |



किसे सफाई दे और किसका… Continue

Added by Abhinav Arun on October 27, 2010 at 3:42pm — 3 Comments

मेरी ख्वाइश --दीपक बनना

अग्नि की लौ में सिमटकर क्यों न एक दीपक बन जाऊं

तम प्रकाश की बनकर जली तम का नाम मिटाऊं ,,



जलकर खुद ही दूजों को , मैं रोशन कर जाऊं

छोड़ स्वार्थ परोपकार में,मैं अपना जीवन बिताऊं ,,



खुद के आभाव मिटा सकूँ न पर दूजों के आभाव मिटाऊं

जीता रहूँ दूजो के लिए , दूजों के लिए ही मर जाऊं ,,



ज्वाला है दीपक की रानी ,गीत ज्वाला के गाऊँ

गिने… Continue

Added by Ajay Singh on October 27, 2010 at 3:30pm — No Comments

कविता-मैं दधीची दान लो

जो सहा वो कहा

मौन है ये ज़ुबां

दर्द की इन्तेहाँ |



एक कली गयी कहाँ

थक गया बाग़बां

हमसफ़र चल रहा

रास्ता जल रहा |



किसके हाथ असलहा

कौन हाँथ मल रहा

आज है कल कहाँ

आँख में जल कहाँ

हर तरफ प्यास है

गाँव में नल कहाँ |



योजना मृगतृष्णा

नैतिकता हे कृष्णा

ज़ोर ज़बर चल रहा

फैसला टल रहा

लाल सूर्य ढल रहा

गर्म ग्रह गल रहा |



एक सवाल है खड़ा

किससे कौन है बड़ा

गर्भ क्यों पल रहा

चल रही… Continue

Added by Abhinav Arun on October 27, 2010 at 3:00pm — 1 Comment

था उसके चेहरे पे सकून ,

था उसके चेहरे पे सकून ,

माँ का आया था फोन ,

पाँच सौ रुपया मिल गया ,

तीन सौ राशन वाले को दिया ,

बाकी में छोटे भाई का पैंट ,

संग में सिलवा दिया हैं शर्ट ,

आज स्कूल भेजा हैं उसको ,

खरीद कर दिया हैं स्लेट ,

भाई स्कूल गया ये जान कर ,

था उसके चेहरे पे सकून !



उम्र के दसवे साल में ,

काम करता चाय की दुकान में .

घर से दूर बहुत दूर ,

हो कर आया था मजबूर ,

सपना था कुछ आँखों में ,

बडपन थी उसकी बातो में ,

पापा के इंतकाल के… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on October 27, 2010 at 2:00pm — No Comments

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