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                       ग़ज़ल


फ़र्ज़  के  पैगाम  का  बस,  उम्र  भर  ये  स्वर  सुना  है |
युग विजेता बन  मनुज  तू ,  जिसने ये अम्बर बुना है ||

वो  कि -   जो  बैठे  हुए  थे   खुद   किनारों  पर   कहीं,
कह  रहे  थे -   खास  गहरा  नहीं  ये  सागर,  सुना  है ||

कल  न  जाने  बात  क्या  थी ?  आसमां  नीचा  लगा,
आज  जब  उँचाई  उसकी  नाप  ली  तो  सिर  धुना  है ||

लौट  कर  आया  नहीं,  उस  ख़त  के  बदले  कोई ख़त,
जिसका एक - एक लब्ज़ हमने, खून दे - दे कर बुना है ||

है   परीक्षा   की   घडी   ये ,  प्यार   करना   है   उसे -
जिसने   हम   पर   फेंकने  के  वास्ते  पत्थर  चुना  है ||

                     रचनाकार - अभय दीपराज

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Comment by आशीष यादव on February 5, 2011 at 8:33am
waah sir, har ek sher apni puri kahani kah de raha hai. ghazal ke sahi maayne yahi hai. mujhe dukh is baat ka hai ki any guni jano ki nazar in blogo par kyo n padi.

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