छंद - दोहा
काव्य रसिक समवेत है ,अद्भुत दिव्य समाज I
माते ! अपनी कच्छपी , ले कर आओ आज II
वीणा के कुछ छेड़ दो , ऐसे मधुमय तार I
सारी पीडाये भुला , स्वप्निल हो संसार II
सपनो में ही प्राप्त है , जग को अब आनंद I
अतः मदिर माते i करो , हम कवियों के छंद II
यदि भावों से गीत से, जग को मिलता त्राण I
रस से सीचेंगे सदा , उनके आकुल प्राण …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 30, 2013 at 12:00pm — 22 Comments
मौन के शव ?
बोलते चुपचाप
बात करते आप
रौंदते है मूक अन्तस को
बधिर होता है हाहाकार
दग्ध पर नहीं होते वो
ध्वंस लेता है फिर आकार
यही होता है प्रकृति में
भावनाओ की विकृति में
सतत क्रम सा बार बार
सभी है सहते उसे
और हाँ कहते उसे
निष्ठुर प्रेम !
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 29, 2013 at 11:49am — 26 Comments
छंद- द्रुतविलंबित
लक्षण - 12 वर्णों के चार चरणों वाले इस छंद के प्रत्येक चरण में 1 नगण 2 भगण तथा 1 रगण होता है I
111 211 211 212
प्रकट है तटबंध प्रवाहिका
नयन गोचर है सरिता नहीं
इक तना लघु था सहसा तना
न चरता पशु भी इक पास में I
सरित का कुछ गान हुआ नहीं
पवन का कुछ भान हुआ नहीं
विरल जीवन मात्र पिपीलिका
सघन है वन नीरव देश भी I
उस तने पर है सब जीव…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 27, 2013 at 8:00pm — 12 Comments
'क्या सोचा?'
'अभी कुछ नहीं सोचा I '
'वैसे तुम बेकार घबरा रही हो i'
'मै घबरा नहीं रही '
'फिर-----?'
'सोचती हूँ यह कोई विकल्प नहीं है I '
'क्यों ------?'
'कल यही स्थिति फिर आएगी I '
'तब की तब देखा जायेगा I '
'तो अभी क्यों न देख ले ?'
'तुम समझी नहीं --'
'क्या---?'
'अभी हमें इसमें फंसने की क्या जरूरत है ?'
'क्यों ----?'
'ये दिन मौज करने के है, ऐश करने के है I '
'और-----बहारो के मजे लूटने के…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 26, 2013 at 12:17pm — 7 Comments
आह ! वह सुख ----
पावसी मेह में भीगा हुआ चंद्रमुख I
यौवन की दीप्ति से राशि-राशि सजा
जैसे प्रसन्न उत्फुल्ल नवल नीरजा I
मुग्ध लुब्ध दृष्टि ----
सामने सदेह सौंदर्य एक सृष्टि I
अंग-प्रत्यंग प्रतिमान में ढले
ऐसा रूप जो ऋतुराज को छले I
नयन मग्न नेत्र------
हुआ क्रियमाण कंदर्प-कुरुक्षेत्र I
उद्विग्न प्राण इंद्रजाल में फंसे
पंच कुसुम बाण पोर-पोर में धंसे I
वपु धवल कान्त…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 22, 2013 at 1:06pm — 32 Comments
आता रहे
जीवन में यह
दिन बार बार
स्वप्न करे साकार
महका हो हर आज
आदरणीय योगराज
आपके विकास में
भव्यता विलास में
बूँद बने सागर
सबके प्रिय प्रभाकर
मैं और क्या कहूं ?
भावना में क्या बहूँ ?
खुशिया हज़ार हो
शांति भी अपार हो
मै निहारता रहूँ
या पुकारता रहूँ
स्वामी जो जगत के
प्रभु जो प्रणत के
उनकी जय जय करू
और यह विनय करू
आता रहे जीवन में
यह…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 18, 2013 at 2:16pm — 13 Comments
क्या कभी देखा है
छोटे - छोटे बच्चो को
कूड़ा बीनते
या फिर किसी होटल में
जूठे प्याले धोते
या फूटपाथ पर जूते सिलते
या किसी सेठ की
भव्य दूकान में
अपनी उम्र और वज़न से
ज्यादा बोझ उठाते
या श्रम करते ?
तो क्या यही सचमुच
भारत के बच्चे है,
देश के भविष्य है ?
क्या इन बच्चो के
प्यारे-प्यारे मन में
हमने कभी झाँका है ?
क्या उनके सपनो को
जग ने कभी नापा…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 14, 2013 at 8:30am — 11 Comments
मेघ भी है, आस भी है और आकुल प्यास भी है,
पर बुझा दे जो हृदय की आग वह पानी कहाँ है ?
स्वाति जल की कामना में, 'पी कहाँ?' का मंत्र पढ़कर
बादलो को जो रुला दे, मीत ! वह मानी कहाँ है ?
क्षत-विक्षत है उर धरा का, रस रसातल में समाया,
सत्व सारा जो लुटा दे, अभ्र वह दानी कहाँ है ?
पार नभ के लोक में, जो बादलो पर राज करता,
छल-पराक्रम का धनी वह इंद्र अभिमानी कहाँ है ?
मौन पादप, वृक्ष नीरव, वायु चंचल, प्राण…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 12, 2013 at 12:30pm — 14 Comments
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