मेघ भी है, आस भी है और आकुल प्यास भी है,
पर बुझा दे जो हृदय की आग वह पानी कहाँ है ?
स्वाति जल की कामना में, 'पी कहाँ?' का मंत्र पढ़कर
बादलो को जो रुला दे, मीत ! वह मानी कहाँ है ?
क्षत-विक्षत है उर धरा का, रस रसातल में समाया,
सत्व सारा जो लुटा दे, अभ्र वह दानी कहाँ है ?
पार नभ के लोक में, जो बादलो पर राज करता,
छल-पराक्रम का धनी वह इंद्र अभिमानी कहाँ है ?
मौन पादप, वृक्ष नीरव, वायु चंचल, प्राण व्याकुल
इन्द्रधनुषी इस रसा का रंग वह धानी कहाँ है ?
सृष्टि भीगे, रूप सरसे, जिस सुहृद से नेह बरसे,
उस पिघलते मेह जैसे वीर का सानी कहाँ है ?
कुछ सरस है, कुछ विरस भी, तृप्त कोई, दृप्त कोई
नियति जल कि थाह लेता जीव अज्ञानी कहाँ है ?
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
गोपाल भाई इतनी खूबसूरत भावपूर्ण कविता की हार्दिक बधाई ॥
बहुत सुन्दर भाव प्रवण कविता
हार्दिक बधाई डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
कुछ सरस है, कुछ विरस भी, तृप्त कोई, दृप्त कोई
नियति जल कि थाह लेता जीव अज्ञानी कहाँ है ?
ऐसी कविता तो वही लिखता है जो ऋषि भी हो और कवि भी हो
बहुत ही खूबसूरत बहुत ही सुन्दर ।
बेहद खूबसूरत एवं ह्रदय को अंदर तक भेदती इस सुंदर प्रस्तुति हेतु बहुत बहुत बधाई आ0 गोपाल जी....
बहुत सुन्दर, मन्त्र मुग्ध करती रचना! आपको हार्दिक बधाई!
इसे आपने कविता क्यों कहा, गीत या ग़ज़ल क्यों नहीं, ये समझ नहीं आया!
बहुत सुन्दर, बधाई | सादर
वाह वाह वाह आदरणीय हृदयस्पर्शी रचना शिल्प, कथ्य, प्रवाह देखते ही बनता है पढ़कर मन मुग्ध हो गया ह्रदय आनंदित हो उठा बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
आदरणीय गोपाल जी ...आपकी यह रचना पाठक को अपने साथ बहाने में सक्षम है ..पहली से अंतिम पंक्ति तक आनंदित करने वाले रचना ...आदरणीय सौरभ सर के बिचारो में भी मैं सहमत हूँ..सादर बधाई के साथ
भावभीनी रचना। इस उत्कृष्ट कविता के लिए सराहना और बधाई, आदरणीय गोपल नारायन जी।
सादर,
विजय निकोर
प्रस्तुति को गीत कहूँ कि ग़ज़ल कहूँ ! .. बस मुग्ध हूँ.
प्रस्तुति के प्रवाह में बहता गया, आदरणीय. गीत के भाव में देखूँ तो हृदय की तृषा को संतृप्तकारी बहाव रससिक्त करता है. हृदय की आकुलता को जितने आयाम मिले हैं, वे सभी सर्वसमाही हैं.
इन्द्र के प्रति ललकार यों चकित कर गया. किन्तु, इस बंद की आवश्यकता नहीं बन पारही है मेरी समझ में. ऐसा लगा मुझे.
मौन पादप, वृक्ष नीरव, वायु चंचल, प्राण व्याकुल
इन्द्रधनुषी इस रसा का रंग वह धानी कहाँ है ? ... .... वाह वाह ! संभाव्य का सुन्दर चित्रण हुआ है !
अन्यान्य बंद प्रभावशाली तो हैं ही, विधा से समर्थ और कारण से सार्थक भी हैं.
अब, यदि ग़ज़ल के लिहाज से देखूँ तो ग़ैर मतला की ग़ज़ल चौंक जाने कारण नहीं हुआ करती. बस आखिरी शेर के सानी में नियति शब्द को बाँधने में दिक्कत हो रही है. मैं चाह कर भी नियत शब्द को २ १ में नहीं बाँध पाऊँगा. इसे १ २ का वज़्न ही मिलेगा.
इस सुन्दर रचना के लिए हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीय.
सादर
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