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'क्या सोचा?'

'अभी कुछ नहीं सोचा I '

'वैसे तुम बेकार घबरा रही हो  i'

'मै घबरा नहीं रही '

'फिर-----?'

'सोचती हूँ यह कोई विकल्प नहीं है I '

'क्यों ------?'

'कल यही स्थिति फिर आएगी I '

'तब की तब देखा जायेगा I '

'तो अभी क्यों न देख ले ?'

'तुम समझी नहीं --'

'क्या---?'

'अभी हमें इसमें फंसने की क्या जरूरत है ?'

'क्यों ----?'

'ये दिन मौज करने के है, ऐश करने के है I '

'और-----बहारो  के मजे लूटने के है ---- है न ?'

'बिलकुल'

'नहीं अब नहीं  I  यह हमारी जिम्मेदारी है I '

'बेवकूफ हो तुम '

'मै बेवकूफ सही पर तुम तो समझदार हो I '

'तभी तो कह रहा हूँ I '

'गलत कह रहे हो, अब हमें शादी कर लेनी चाहिए I '

फिर वही, अच्छा चलो पहले यह करा लो  फिर शादी भी हो जायेगी  I '

'नहीं अब पहले शादी ---'

'भाड़ में जाओ I '

'जानती थी तुम यही कहोगे I '

'मै यह  कहना नहीं चाहता था I '

'तो क्यों कहा ?'

'तुम्हारी जिद पर '

'जिद नहीं , माँ की ममता है , तुम क्या जानो --?'

' हुंह -------- ममता दकियानूसी बाते '

'यह  तुम्हारी समझ है I '

' क्या मै गलत हूँ ------?'

'बिलकुल'

'तो फिर  तुम अपनी सही राह पर चलो I'

'और तुम------?'

'मै अपनी राह पर------ I ' 

 

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on November 28, 2013 at 8:09pm

अच्छा संवाद रचा है आपने आदरणीय

सादर बधाई हो इस रचना के लिए जिसमें निहित सन्देश एक दिशा दे रहा है आधुनिकीकरण को

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 28, 2013 at 6:56am

बहुत सुंदर संदेश देती रचना , बधाई स्वीकारें आदरणीय डा. गोपाल जी

Comment by विजय मिश्र on November 27, 2013 at 5:07pm
क्या वार्तालाप है , ऐसे रिश्तों में तो यही होता है , यूज एंड थ्रो - का जमाना जरा देर से आया है ,उलटी हवाओं को दूर से बहकर आना पड़ा है ,पश्चिम की समाजिक संरचना को तो पताल धँसा चूका है
ये है काम-काजी और ऊल-जुलूल जीने वालों का संसार . जहाँ माँ-बाप आउट डेटेड डिक्लेयर्ड कर दिए गए हैं |थोड़ी सी उन्मुक्ति में जीवन गर्त |बहुत कठोर आघात है यह कविता इस कुकर्मी जीवन पर जिसे अधुनातन कहते हैं |आभार मित्रवर |
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 27, 2013 at 1:13pm

उच्च घरानों , महानगरों में अब आये दिन यही सब मिलेगा ।, ताज्जुब है पढ़ी लिखी और हाई सोसायटी की लड़कियाँ भी नहीं समझ पा रहीं हैं कि हर बात में पुरुषों से होड़ की चक्कर में नुकसान उन्हीं का होना है। लिव इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता मिल जाने से भारतीय परम्परा , आदर्श सब कुछ तहस नहस हो रहा है और समाज मूक दर्शक बना है। आगे- आगे देखिए होता है क्या ? इस रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय गोपाल भाई॥ 

Comment by नादिर ख़ान on November 26, 2013 at 10:06pm

बेहतरीन संवाद, आदरणीय गोपाल नारायण जी ।

वर्तमान समय में सही राह दिखाता ..... 

Comment by बृजेश नीरज on November 26, 2013 at 10:04pm

आदरणीय टिप्पणी का जवाब रचना पर ही दिया करें!

आपका कहना है कि ये कविता नहीं लघु कथा है तो ये पाठक को कैसे पता चलेगा? आपने शिल्प तो कविता का रखा है और इस तरह के प्रयोग नयी कविता के दौर में होते रहे हैं.

Comment by बृजेश नीरज on November 26, 2013 at 7:57pm

 बढ़िया! ये प्रयोग अब देखने को नहीं मिलते. वैसे कविता बोल अधिक रही है इसीलिए कविता कम कथा अधिक लग रही है. कुछ अनावश्यक शब्दों को अभी हटाने की गुंजाइश है.

फिलहाल इस नए तरह के प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई!

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