अतुकांत कविता : प्रगतिशील
अकस्मात हम जा पहुँचे
एक लेखिका की कविताओं पर
जिसमे प्रमुखता से उल्लेखित थे
मर्द-औरत के गुप्त अंगों के नाम
लगभग सभी कविताओं में...
पूरी तरह से किया गया था निर्वहन
उस परंपरा को
जहाँ दी जाती हैं गालियाँ
समूची मर्द जाति को
एक ही कटघरे में खड़ा कर
प्रस्तुत किया जाता है विशिष्ट उदाहरण
चंद मानसिक विक्षिप्तों…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 30, 2020 at 7:30pm — 6 Comments
नियति का आशीर्वाद
हमारे बीच
यह चुप्पी की हलकी-सी दूरी
जानती हो इक दिन यह हलकी न रहेगी
परत पर परत यह ठोस बनी
धातु बन जाएगी
तो क्या नाम देंगे हम उस धातु को ?…
ContinueAdded by vijay nikore on January 27, 2020 at 12:30pm — 4 Comments
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122
धमनियों में दौड़ता यूँ तो सदा है ।।
रक्त है जो देश हित में खोलता है ।।
हौसला उस वीर का देखो ज़रा तुम ।
गोलियों की धार में सीना तना है ।।…
ContinueAdded by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on January 25, 2020 at 5:33pm — 3 Comments
कान और कांव कांव
*****
एक आदमी(नकाब में) :तेरे कान कौवे ले गए।
दूसरा:एं?
पहला:और क्या?वो देखो, कौवे उड़ते जा रहे हैं।
दूसरा व्यक्ति दो कौवों के पीछे दौड़ने लगा। उसके पीछे एक एक कर लोग दौड़ने लगे। कारवां बन गया....गुबार देखते बनता था ... कारवां के पिछले हिस्से में दौड़ते हांफते लोग एक दूसरे से सवाल करते कि आखिर वे कहां जा रहे हैं,क्या कर रहे हैं? हां, आगे के हिस्से की आवाज में आवाज जरूर मिलाते कि ' वापस दो,वापस दो...।' कोई कोई तो ' वापस लो..वापस लो..' की भी आवाज…
Added by Manan Kumar singh on January 11, 2020 at 2:58pm — 6 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
पर्दा सलीके से बहुत मकसद पे डाल कर
वो लाये सबको देखिए घर से निकाल कर।१।
कितना किया अहित है यूँ अपने ही देश का
लोगों ने उसके नाम पर पत्थर उछाल कर।२।
वंशज उन्हीं के कर रहे जर्जर इसे यहाँ
रखना जो कह गये थे ये कश्ती सँभाल कर।३।
कर्तब तेरे किसी को यूँ आते समझ नहीं
तू भी निजाम नित नया मत अब कमाल कर।४।
कर ली है पाँच साल यूँ नेतागरी बहुत
बच्चों सरीखा…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2020 at 4:26pm — 11 Comments
(221 2121 1221 212)
(बहर मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़)
अब के अजीब रंग में आया है जनवरी
ग़म सब पुराने साथ में लाया है जनवरी
बे-नूर सुब्ह-ओ-शाम हैं वीरां हैं रास्ते
तू भी किसी के ग़म का सताया है जनवरी
ना दिन में आफ़्ताब न महताब रात में
मत पूछिये कि कैसे निभाया है जनवरी
क़हर-ओ-सितम है ठंड का जारी उसी तरह
कोहरा-ओ-धुंद और भी लाया है जनवरी
शादाब ना शजर हों तो क्या लुत्फ़-ए-ज़िन्दगी
तुझको सितम…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on January 7, 2020 at 11:41am — 6 Comments
स्वप्न-मिलन
रात ... कल रात
कटने-पिटने के बावजूद
बड़ी देर तक उपस्थित रही
नींद के धुँधलके एकान्त में
पिघलते मोम-सा
कोई परिचित सलोना सपना बना…
ContinueAdded by vijay nikore on January 7, 2020 at 6:30am — 8 Comments
आओ और निकट से देखो
हिलोरें लेते इस पारावार को
हमारा जीवन भी ऐसा ही है
नीर जैसा स्वच्छ और निर्मल
जब पयोधि क़ी लहरें छूती हैं
रेत क़ी फ़ैली हुई कगार को
तब वह समेट लेती सब कुछ
और ले जाती है पयोनिधी में
हम मनुष्य भी तो ऐसे ही हैं
जब हम प्रेम में होते हैं तब
ढूंढते रहते हैं बस एक साहिल
ताकि समेट सकें स्वयं में सब कुछ
किंतु उदधि और मनुज क़ा प्रेम
उदर में ज्य़ादा काल नहीं…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 2, 2020 at 12:30pm — 6 Comments
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