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देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)

बह्र : 2122 2122 2122 212 

देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले

झूठ, नफ़रत, छल-कपट से जैसे गद्दारी मिले

संत सारे बक रहे वाही-तबाही लंठ बन 

धर्म सम्मेलन में अब दंगों की तैयारी मिले

रोशनी बाँटी जिन्होंने जिस्म…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 28, 2025 at 11:17pm — 1 Comment

"मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

  • १२२/१२२/१२२/१२२

    *****

    पसरने न दो इस खड़ी बेबसी को

    सहज मार देगी हँसी जिन्दगी को।।

    *

    नया दौर जिसमें नया ही चलन है

    अँधेरा रिझाता है अब रोशनी को।।

    *

    दुखों ने लगायी  है  ये आग कैसी

    सुहाती नहीं है खुशी ही खुशी को।।

    *

    चकाचौंध ऊँची जो बोली लगाता

    कि अनमोल कैसे रखें सादगी को।।

    *

    बचे ज़िन्दगी क्या भला हौसलों की

    अगर तोड़  दे  आदमी  आदमी को।।

    *

    गलत को मिला है सहजता से परमिट

    कसौटी  पे  रक्खा   गया   है सही को।।

    *

    रतौंधी सी…
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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 25, 2025 at 5:02pm — No Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर

1222-1222-1222-1222

जो आई शब, जरा सी देर को ही क्या गया सूरज।

अंधेरे भी मुनादी कर रहें घबरा गया सूरज।

चमकते चांद को इस तीरगी में देख लगता है,

विरासत को बचाने का हुनर समझा गया सूरज।

उफ़क तक दौड़ने के बाद में तब चैन से सोया,

जमीं से भी जो जाते वक्त में मिलता गया सूरज।

तुम्हें रोना है जितनी देर, रो लो शाम का रोना,

मगर दीपक की बाती पर सिमट कर आ गया सूरज।

वो आईना दिखाने में बहुत मसरूफ़ थे लेकिन,

बिना…

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Added by मिथिलेश वामनकर on September 24, 2025 at 6:10pm — 1 Comment

दोहा पंचक. . . . .इसरार

दोहा पंचक. . . .  इसरार

लब से लब का फासला, दिल को नहीं कबूल ।

उल्फत में चलते नहीं, अश्कों भरे उसूल ।।

रुखसारों पर रह गए, कुछ ऐसे अल्फाज ।

तारीकी के खुल गए, वस्ल भरे सब राज ।।

जुल्फों की चिलमन हटी ,हया हुई मजबूर ।

तारीकी में लम्स का, बढ़ता रहा सुरूर ।।

ख्वाब हकीकत से लगे, बहका दिल नादान ।

बढ़ी करीबी इस कदर, मचल उठे अरमान  ।।

खामोशी दुश्मन बनी , टूटे सब इंकार ।

दिल ने कुबूल कर लिए, दिल के सब इसरार ।।

सुशील सरना /…

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Added by Sushil Sarna on September 15, 2025 at 8:57pm — No Comments

शोक-संदेश (कविता)

अथाह दुःख और गहरी वेदना के साथ

आप सबको यह सूचित करना पड़ रहा है कि

आज हमारे बीच वह नहीं रहे

जिन्हें युगों से

ईश्वर, ख़ुदा, भगवान,…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 11, 2025 at 10:43pm — No Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी

२१२२       २१२२        २१२२   

औपचारिकता न खा जाये सरलता

********************************

ये अँधेरा, फैलता  जो  जा रहा है

रोशनी का अर्थ भी समझा रहा है

 

चढ़ चुका है इक शिकारी घोसले तक

क्या परिंदों को समझ कुछ आ रहा है 

 

जो दिया की बोर्ड से आदेश तुमने  

मानिटर से फल तुम्हें मिलता रहा है

 

पूंछ खींची आपने बकरा समझ कर

वो था बन्दर, जो अभी चौंका रहा है

 

औपचारिकता न खा जाये सरलता

आज…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 7, 2025 at 6:30pm — 2 Comments

दोहा दशम्. . . . . गुरु

दोहा दशम्. . . . गुरु

शिक्षक शिल्पी आज को, देता नव आकार ।

नव युग के हर स्वप्न को, करता वह साकार ।।

बिना स्वार्थ के बाँटता, शिक्षक अपना ज्ञान ।

गढ़े ज्ञान से वह सदा, एक सभ्य  इंसान ।।

गुरुवर  अपने  ज्ञान से , करते अमर प्रकाश ।

राह दिखाते सत्य की, करते तम का नाश ।।

शिक्षक करता ज्ञान से , शिष्यों का उद्धार ।

लक्ष्य ज्ञान से सींचता,  उनका नव संसार ।।

गुरु बिन संभव ही नहीं, जीवन का उत्थान ।

पैनी छेनी ज्ञान की, गढ़ती नव पहचान…

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Added by Sushil Sarna on September 5, 2025 at 3:00pm — 1 Comment

लौटा सफ़र से आज ही, अपना ज़मीर है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२१/२१२१/१२२१/२१२

*****

जिनकी ज़बाँ से सुनते  हैं गहना ज़मीर है

हमको उन्हीं की आँखों में पढ़ना ज़मीर है।१।

*

जब सच कहे तो काँप  उठे झूठ का नगर

हमको तो सच का ऐसे ही गढ़ना ज़मीर है।२।

*

सत्ता के  साथ  बैठ  के  लिखते हैं फ़ैसले,

जिनकी कलम है सोने की, मरना ज़मीर है।३।

*

ये शौक निर्धनों का है, पर आप तो धनी,

किसने कहा है आप को, रखना ज़मीर है।४।

*

चलने लगी हैं गाँव में, बाज़ार की हवा,

पनपेंगे ज़र के…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 3, 2025 at 9:15pm — 4 Comments

बाल बच्चो को आँगन मिले सोचकर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२/२१२/२१२/२१२

******

घाव की बानगी  जब  पुरानी पड़ी

याद फिर दुश्मनी की दिलानी पड़ी।१।

*

झूठ उसका न जग झूठ समझे कहीं

बात यूँ अनकही  भी  निभानी पड़ी।२।

*

दे गये अश्क  सीलन  हमें इस तरह

याद भी अलगनी पर सुखानी पड़ी।३।

*

बाल-बच्चो को आँगन मिले सोचकर

एक  दीवार   घर   की  गिरानी  पड़ी।४।

*

रख दिया बाँधकर उसको गोदाम में

चीज अनमोल  जो  भी पुरानी पड़ी।५।

*

कर लिया सबने ही जब हमें आवरण

साख हमको  सभी  की बचानी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 1, 2025 at 5:30pm — 4 Comments

दोहा सप्तक. . . नजर

नजरें मंडी हो गईं, नजर हुई  लाचार ।

नजरों में ही बिक गया, एक जिस्म सौ बार ।।

 

नजरों से छुपता नहीं,कभी नजर का प्यार ।

उठी नजर इंकार तो, झुकी नजर  इकरार ।।

 

नजरें समझें जो हुए, नजरों से संवाद ।

बिन बोले ही बोलते , नजरों के उन्माद ।।

 

नजरों को झूठी लगे, नजरों की मनुहार ।

कामुकता से है भरा, नजरों का संसार ।

 

नजरें ही करने लगी, नजरों से व्यापार ।

नजर पाश में हो गई, नजर बड़ी लाचार  ।।

 

नजरों…

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Added by Sushil Sarna on August 31, 2025 at 3:00pm — 7 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ

२१२२ १२१२ २२/११२

तमतमा कर बकी हुई गाली

कापुरुष है, जता रही गाली

 

भूल कर माँ-बहन व रिश्तों को

कोई देता है बेतुकी गाली

 

कुछ नहीं कर सका बुरा मेरा

खीझ उसने उछाल दी गाली 

 

ढंग-व्यवहार के बदलने से

हो गयी विष बुझी वही गाली

 

कब मुलायम लगी कठिन कब ये

सोचना कब दुलारती गाली

 

कौन कहिए यहाँ जमाने में

अदबदा कर न दी कभी गाली

 

नाज से तुम सहेज कर रखना

संस्कारों पली-बढ़ी…

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Added by Saurabh Pandey on August 29, 2025 at 5:30pm — 12 Comments

भादों की बारिश

भादों की बारिश
(लघु कविता)
***************

लाँघ कर पर्वतमालाएं
पार कर
सागर की सर्पीली लहरें
मैदानों में दौड़ लगा
थकी हुई-सी
धीरे-धीरे कदम बढ़ाती
आ जाती है
बिना आहट किए
यह बूढ़ी
भादों की बारिश।

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 25, 2025 at 7:36pm — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - चली आयी है मिलने फिर किधर से ( गिरिराज भंडारी )

चली आयी है मिलने फिर किधर से

१२२२   १२२२    १२२

जो बच्चे दूर हैं माँ –बाप – घर से

वो पत्ते गिर चुके समझो, शज़र से

 

शिखर पर जो मिला तनहा मिला है

मरासिम हो अहम, तो बच शिखर से

 

रसोई  में  मिला  वो स्वाद  आख़िर

गुमा था जो किचन में  उम्र  भर से  

 

तू बाहर बन सँवर के आये जितना

मैं भीतर झाँक सकता हूँ , नज़र से

 

छिपी  है ज़िंदगी  में  मौत  हरदम

वो छू  लेगी  अगर  भागेगा डर…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 22, 2025 at 7:15pm — 8 Comments

कुंडलिया. . . . .

कुंडलिया. . .

चमकी चाँदी  केश  में, कहे उम्र  का खेल ।
स्याह केश  लौटें  नहीं, खूब   लगाओ  तेल ।
खूब  लगाओ  तेल , वक्त  कब  लौटे  बीता ।
भला उम्र की दौड़ , कौन है आखिर जीता ।
चौंकी बढ़ती  उम्र , जरा जो बिजली दमकी ।
व्यग्र  करें  वो  केश , जहाँ पर चाँदी चमकी ।

सुशील सरना / 22-8-25

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on August 22, 2025 at 1:30pm — 2 Comments

तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या

२१२२ २१२२ २१२२ २१२

इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या

वैसे भी इस गुफ़्तगू से ज़ख़्म भर जावेंगे क्या

आप आ'ला हैं तो हमको हक़ हमारा दीजिये

आपके रहम-ओ-करम पे जीस्त जी पावेंगे क्या

कौन दे है नौकरी सिर्फ़ इल्म की अस्नाद पर…

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Added by Aazi Tamaam on August 19, 2025 at 11:30pm — 9 Comments

दोहा सप्तक. . . . . विविध

मंजिल हर सोपान की, केवल है  अवसान ।

मुश्किल है पहचानना, जीवन के सोपान ।।

 

छोटी-छोटी बात पर, होने लगे तलाक ।

पल में टूटें आजकल, रिश्ते सारे पाक ।।

 

छोटे से परिवार में, सीमित  है औलाद ।

उस पर भी होते नहीं, आपस में संवाद ।।

 

पति-पत्नी के प्रेम का, अजब हुआ है हाल ।

प्रेम जाल में गैर के, दोनों हुए हलाल ।।

 

कत्ल प्रेम में आजकल, हर दिन  होते आम ।

नाता जोड़ें गैर से, फिर होते बदनाम ।।

 

धोखा…

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Added by Sushil Sarna on August 19, 2025 at 3:00pm — 6 Comments

छन्न पकैया (सार छंद)

छन्न पकैया (सार छंद)

-----------------------------

छन्न पकैया - छन्न पकैया, तीन रंग का झंडा।

लहराता अब धरा - चाँद पर, करता मन को ठंडा।।

छन्न पकैया - छन्न पकैया, देश जान से प्यारा।

हम सबके ही मन में बहती, देश प्रेम की धारा।।

छन्न पकैया- छन्न पकैया, दुर्गम अपनी राहें।

मन में है कोमलता बसती, फ़ौलादी हैं बाँहें।।

छन्न पकैया- छन्न पकैया, हम भारत के फौजी।

तन पर सहते कष्ट हज़ारों, फिर भी मन के…

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Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 19, 2025 at 1:00pm — 4 Comments

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)

********************

जैसे किसी तालाब का

सारा जल सूखकर

तलहटी में फट गई हों गहरी दरारें 

कुछ वैसी ही लग रही थी

उस वृद्ध की एड़ियां 

शायद तपा होगा वह भी 

उस तालाब सा कर्त्तव्य की धूप में 

अर्पित कर दिया होगा

अपने रक्त का कतरा - कतरा

अपनों को पालने में।

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 18, 2025 at 1:00pm — 3 Comments

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212

****

केश जब तब घटा के खुले रात भर

ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।।

*

देख सावन के आँसू छलकने लगे

और जुगनू  हुए  चुलबुले रात भर।।

*

हाल अपना मगर इसके विपरीत था

नैन  डर  से  रहे  अधखुले  रात भर।।

*

धार फूटी कहीं फोड़ पाषाण को

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर।।

*

देख तारों को मद्धम जो इतरा गयी

दर्प उस  चाँदनी  के  घुले रात भर।।

*

खोल मन बिजलियाँ खिलखिलाती रहीं

कह गये …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2025 at 8:56pm — 4 Comments

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २

चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

फिर हो जाएं आसाँ रस्ते मंज़िल के 

हर पल अपना खून जलाना पड़ता है

तब जाके अल्फाज़ महकते हैं दिल के

नफ़रत बो कर लोगों के ज़ह्न–ओ–दिल में

साहिब ख़्वाब दिखाते हैं मुस्तक़बिल के

कश्ती की हस्ती है बीच भँवर लेकिन

लोग सफ़र में दीवाने हैं साहिल के…

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Added by Aazi Tamaam on August 13, 2025 at 3:00pm — 7 Comments

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