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कैसी खिचड़ी पक रही, कैसा है ये खेल।
घी खिचड़ी किसको मिले, किसको खिचड़ी तेल।।
किसको खिचड़ी तेल, कौन खायेगा रूखी।
जनता जो है आम, रहेगी फिर भी भूखी।।
खिचड़ी की औकात, कभी भी थी क्या ऐसी।
अब यह चर्चा आम, पकेगी खिचड़ी कैसी।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
**हरिओम श्रीवास्तव**

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Comment by Dr.Prachi Singh on November 6, 2017 at 10:06pm

बहुत खूबसूरत सामयिक विषय पर छंद लिखा है..सचमुच मज़ा आ गया बांच कर 
शिल्प पर शुद्ध है लेकिन "कभी भी"???? सिर्फ कभी ही पूर्ण भाव को व्यक्त करने में समर्थ है ..तो भी का अतिक्रमण क्यों ......ऐसे शब्दों से बच कर सम्प्रेषण में कथ्य सांद्रता को बढ़ाया   जा सकता है ...  ऐसा प्रयास होना  चाहिए 

मेरी शुभकामनाएं 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 6, 2017 at 8:55pm
वाह आदरणीय सुन्दर छंद रचना हुई सादर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 6, 2017 at 7:08pm
सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
Comment by Samar kabeer on November 5, 2017 at 9:50pm
जनाब हरिओम श्रीवास्तव जी आदाब,बढ़िया कुण्डलिया छन्द रचा,बधाई स्वीकार करें ।
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 5, 2017 at 5:06pm

सुंदर और सामयिक 

Comment by SALIM RAZA REWA on November 5, 2017 at 4:24pm
ख़ूबसूरत रचना के लिए बधाई

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