आदरणीय साथिओ,
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उम्दा कथाएँ , नयना जी । बहुत बहुत बधाई ।
परम्पराओं के नाम पर
" सलीमा तुम पुनः निकाह कर लो।" अरशद ने चंद दिन पूर्व तलाक दी बेगम से कहा
" आपका मतलब हलाला से हैं?"
" हाँ सलीमा , और कोई रास्ता नहीं हैं।"अरशद ने सलीमा पर दबाव डालते हुए कहा
उनकी खुशहाल गृहस्थी में हुए एक छोटे से पारिवारिक क्लेश मे ही अरशद ने उसे तलाक का फरमान सुना दिया था।अब पछतावा हो रहा था अतः हलाला की बात कर रहे थे।
ओह !" लेकिन आज से पूर्व कोई गैर मर्द मुझे देखे यह भी आपको मंजूर ना था और अब "
" वह बात और थी यह बात हमारे मजहब से जुडी हैं जो मेरे लिए सर्वोपरी हैं।"
" आज हलाला जैसी परम्पराओं का सर्वत्र विरोध हो रहा हैं।"
" इन लोगो की बातों में ना आओ। ये हमे बाटने की कोशिश कर रहे हैं।"क्रोधित हो अरशद चीख़ पड़े
सब्र खो चुकी सलीमा भी फट पड़ी ,"आपका कृत्य स्त्री को वेश्या की तरह इस्तेमाल करने का हैं जिसके लिये मैं तयार नहीं।"
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जिम्मेदारी
" अच्छा कमाता खाता लड़का पेशे से इंजिनियर लड़के का प्रस्ताव मामा सुरेन्द्र ने अपनी भांजी रिया के समक्ष रखा। उसे समझाते हुए कहा :
" घर चलाने की जिम्मेदारी आजीवन तुम्हारी ही हैं क्या ।यह जिम्मेदारी अब दोनों भाइयों को उठाने दे नहीं तो तुम्हारे पापा की तरह वे भी मुफ़्त की रोटियां ही तोड़ते रहेंगे।"
" थोड़ी देर चुप्पी छाई रही।असमन्जस में रिया को देख वे पुनः कह उठे :
" मैं तुझ पर किसी भी तरह से दबाव नहीं डाल रहा हूँ।अगर तुझे लड़का पसन्द हैं तभी आगे बात करूँगा।"
रिया ने " जैसा आप उचित समझे " कह कर अपनी स्वीकृति दे दी।
अब तक चुप्पी साधे रही रिया की मम्मी तिलमिला उठी " इसीलिए बेटियों को जन्म से पराई कहते हैं क्योकि वह मायके को अपना घर कभी समझती ही नहीं।उसे मायके की जिम्मेदारियां सदैव बोझ लगती हैं।"
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मौलिक एवं अप्रकाशित
आ.उस्मानी भाई आपने स्वयं ही स्वीकारा हैं की पवित्र शरीयत की व्यवस्थायें कतई गलत नहीं हैं ना ही धर्म किसी को गलत सिखाता हैं बल्कि हम ही समय समय पर अपनी सुविधा अनुसार तोड़मरोड़ लेते हैं।और कथा में मैंने उसी गंदगी को सामने रखने की कोशिश की जो समाज में व्याप्त हैं।उस गन्दगी को हटाने के लिए हमे उसमे घुसाना तो पडेगा ही ।रही वेश्या शब्द का इस्तेमाल की बात तो कोई भी महिला इस शब्द को अपनी जुबान पर लाने से पूर्व सौ बार विचार करेगी और यह शब्द मैंने मिडिया या फ़िल्म से नहीं लिया हैं बल्कि समाज में घटित घटनाओं को में से ही उठाया हुआ हैं।जब इस तरह के प्रकरण धर्म मान्य ही नहीं हैं तब सामाजिक व्यवहार में इनके चलन पर ऊँगली उठाना कहाँ से धार्मिक भावनाओं को आहत करेगा।और मैंने यहाँ धर्म को मुद्दा बनाया भी नहीं हैं।फिर भी किसी की धार्मिक भावना आहत हुई हैं तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।सादर
हार्दिक धन्यवाद आ.तस्दीक़ अहमद खान जी
आदरणीय अर्चना जी, प्रथम प्रस्तुति समसामयिक रचना है । / आपका कृत्य स्त्री को वेश्या की तरह इस्तेमाल करने का हैं जिसके लिये मैं तयार नहीं।/ यहां शब्द 'वेश्या' के स्थान पर 'वस्तु की तरह इस्तेमाल' किया जा सकता था । दूसरी प्रस्तुति 'जिम्मेदारी' को लेकर थोड़ा संशय है कि एक माँ ऐसा चाह सकती है कि उसकी बेटी सदैव मायके की ही जिम्मेवारियों का बोझा ढोती रहे जबकि घर में लड़की का पिता व दो भाई मौजूद हैं । ऐसे में यह कथा जो संदेश दे रही है वह गले से नीचे नहीं उतरता। इस कथा का शीर्षक अर्थपूर्ण शीर्षक है। शुभकामनाएं ।
नमस्कार रवि जी , वेश्या शब्द का इस्तेमाल करने में मुझे भी कई बार स्वयं से ही जद्दोजहद करनी पड़ी लेकिन कई जगह इस शब्द का इस्तेमाल होते हुए पढना हैं इसलिए किया हैं।
दूसरी कथा कड़वी हकीकत हैं क्योकि कमाऊ बेरी पिता ताउम्र निकम्मा और माँ को बेटों को पसीना आये यह गवारा नहीं। आज इस तरह के भेद समाज में प्रस्थापित हो रहे हैं।यह भी एक अलग तरह के शोषण की शुरुवात हो चुकी हैं।आपने रचना को अमूल्य समय दिया जिसके लिए अत्यंत आभारी हूँ ।हार्दिक धन्यवाद आपका
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