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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-79

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 79 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब मोहम्मद अहमद रम्ज़ साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

 
ऐसा लगता है कि क़िस्सा मुख़्तसर होने को है "

फाइलातुन     फाइलातुन       फाइलातुन       फाइलुन

2122   2122   2122     212

(बह्र: रमल मुसमन महजूफ)
रदीफ़ :- होने को है 
काफिया :- अर (असर, मुख़्तसर, गुहर, सहर आदि)
 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 27 जनवरी दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 जनवरी दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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आदरणीय बासुदेव जी इस बढ़िया ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें

आ0 समर साहिब के सुझावों के उपरांत नए रूप में ग़ज़ल:-

लग रहा है यार मेरा हमसफ़र होने को है,
सद्र जो दिल का था अब तक सद्र-ए-घर होने को है।

उनके आने से सँवर जाएगा उजड़ा आशियाँ,
घर बदर जो हो रहा था घर बसर होने को है।

जो मुहब्बत थी खफ़ा उसने करम दिल पे किया,
ऐसा लगता है कि किस्सा मुख़्तसर होने को है।

रोज गाएँगे तराने अब नये हम साथियों,
अब हमारी भी ग़ज़ल सब पुरअसर होने को है।

चैन दिल को दिन में ना है रात भी कटती नहीं,
जो असर हम पर था वो उन पर असर होने को है।

इस मुहब्बत के सफ़र में ठोकरें खायी बहुत,
जिंदगी की अब सभी आसाँ डगर होने को है।

बेकरारी की अँधेरी रात में तड़पा 'नमन',
जिंदगी में अब मुहब्बत की सहर होने को है।
'सद्र जो दिल का था अब तक सद्र-ए-घर होने को है'
आपके नये मतले के सानी मिसरे पर कुछ साझा करना चाहूँगा ।
पिछले दिनों ब्लाग्स पोस्ट पर किसी ग़ज़ल पर मैंने इज़ाफ़त के बारे में मंच से कुछ जानकारी साझा की थी,उसे पुनः साझा करता हूँ,ऐसी बातें नोटबुक में लिख लेना लाभकारी होगा ।
हिन्दी और अरबी भाषा के शब्द जब हम इस्तेमाल करें तो ये ध्यान रखना होगा कि इन शब्दों के साथ इज़ाफ़त का इस्तेमाल नहीं किया जाता ।
इस मिसरे में 'सद्र'शब्द ऐसा ही शब्द। है ।

'अब हमारी भी ग़ज़ल सब पुरअसर होने को है'
इस मिसरे में 'सब' शब्द सारा खेल ख़राब कर रहा है,यूँ कहना होगा:-
"अब हमारी हर ग़ज़ल ही पुरअसर होने को है"

लगता है आपने मेरी टिप्पणी ध्यान से नहीं पढ़ी ?

'ज़िन्दगी की अब सभी आसाँ डगर होने को है'

इस मिसरे पर मैं लिख चुका हूँ,'सभी'शब्द हटाइये ।

और संकलन आने के बाद(जो पता नहीं क़ब आएगा)संशोधन के लिए कहियेगा ।

मुहतरम जनाब बासुदेव साहिब , क़ाफ़िया दोष छोड़ कर अच्छी ग़ज़ल हुई है , शेर दर शेर दाद के साथ
मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ --

इक किरण छिटका दिया है बस सहर होने को है
मोतियाँ चमकेंगी सूरज का असर होने को है

राह में शोरिश बढ़ी है काफ़िला बन ही गया
ऐसा लगता है कि क़िस्सा मुख़्तसर होने को है

हर ग़ज़ल का शेर हर इक उनकी खश्बू से सना
छिप न पाया इश्क़ दुनिया को खबर होने को है

हीर रांझा कैस लैला या के मीरा कृष्ण हों
गर हुई ज़िंदा मुहब्बत तो गदर होने को है

मेज़बाँ के मन में ग़र चे स्नेह कम हो क्लेश हो
फिर, अमिय पकवान को भी तो ज़हर होने को है

नेक नीयत का ये प्रवचन बन्द भी करिये गुरू
शह्र का चर्चित लुटेरा मान्यवर होने को है

मौलिक अप्रकाशित

बहुत अच्छी ग़ज़ल आदरणीय पंकज  जी 

आदरणीय गुरप्रीत जी सादर धन्यवाद

बहुत खूब  ऑ० पंकज भाई हार्दिक बधाई स्वीकारें .

आदरणीय लक्ष्मण सर बहुत-बहुत आभार बहुत-बहुत धन्यवाद

हर ग़ज़ल का शेर हर इक उनकी खश्बू से सना
छिप न पाया इश्क़ दुनिया को खबर होने को है
वाह बधाई स्वीकार करें 

आदरणीय मुनीश तन्हा शहर बहुत-बहुत आभार

वाह साहिब वाह बधाई स्वीकार करें

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