आदरणीय साथिओ,
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इस उत्साहवर्धन हेतु दिल से आपका शुक्रिया आ० प्रतिभा पांडे जीI
रचना को मान देने हेतु बहुत बहुत शुक्रिया भाई सतविन्द्र कुमार जीI
आ० अनुज , साहित्य का यह गोरखधंधा काफी पुराना है . मुझे मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'संपादक मोटे राम शास्त्री' की याद आ गयी . इस लघु कथा की प्रस्तुति बहुत नायाब तरीके से हुयी है , मुझे मकबूल का समर्पण अच्छा नहीं लगा . उसकी कोई ऐसी आर्थिक मजबूरी कथा में नहीं दिखती .एक दृष्टि यह भी हो सकती थी कि वह प्रस्ताव अस्वीकृत करता और कहता कि इस तरह मकबूल होने से मेरा गुमनाम रहना ज्यादा अच्छा है. बहरहाल आपने एक विकृति को उजागर किया इस हेतु बधाई . आगत नव वर्ष की बधाई , शुभ कामना जय जय .
आ० डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, वास्तविकता और नाटकीय तथाकथित आदर्शवाद (थोपा हुआ अंत) में ज़मीन आसमान का अंतर होता हैI ज़रा सोचें कि यदि गोदान मुंशी प्रेम चंद की बजाय गुलशन नंदा ने लिखा होता तो इस बात की प्रबल संभावना थी कि गोबर ढेर सारा रुपया कमाकर होरी को ग़रीबी से मुक्त कर देताI आपको भी सपरिवार नए साल की हार्दिक शुभकामनाएँI
तथाकथित आदर्शवाद 'क्या होना चाहिए?' का अवलंबी हैं परन्तु यथार्थवाद 'क्या है' का समर्थक है। वर्तमान की कठोर वास्तविकताओं से आंखे मूंदकर भूत और भविष्य में से विषय गड़ने साहित्य को अपराधी साबित करना है। यह एक तरीके से जिम्मेवारी से भागना, एक पलायन है। पलायनवाद साहित्य को खोखला, निर्जीव व कमजोर बना देता है। सादर
हार्दिक आभार प्रिय शशि बांसल जीI
मुहतरम जनाब योगराज साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुन्दर लघुकथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---
दिल से शुक्रिया आ० तस्दीक अहमद खान जीI
रचना को अपना बहुमूल्य समय एवं मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार भाई महेंद्र कुमार जीI
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