आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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आदरणीय विजय जोशी जी, जैसा की आपने लिखा है "मौलिक व अप्रकाशित-" , क्या आपकी रचना अप्रकाशित कैटेगरी में है ??
अक्सर ऐसे चित्र बहुत सोहरत और दौलत दिला जाते हैं जिसमें दर्द का सजीव चित्रण हो| बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए
तस्वीर आँखों की
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शहर से बाहर सगुना मोड़ पर रविवार की एक अलसाई सुबह चाय की गुमटी में बैठा था.
“लो, एक चाय उसे भी दे आओ पैसे मत लेना” – मैली-सी धोती और कुर्ते में बाहर् बैठे गँवई की ओर इशारा करते हुये चाय वाले ने अपने नौकर से कहा.
“कौन है ये?” - मैने पूछा
चाय वाला जबतक कुछ कहता, चाय के ग्लास को रखते हुये एक सज्जन ने फ़िकरा कसा - “इसकी बात क्या करें, भइया !.. यहाँ ये सारी जमीन देख रहे हैं न, एक समय इसी की थी.. अब ये यहाँ बैठ के आज के हिसाब से इनके भाव लगाता रहता है.. ”
मुझे सवालिया निगाहों से उन सज्जन की ओर घूरता हुआ देख चायवाले ने कहा - “भाईसाहब, पहले तो बिल्डर ने दारु पिला-पिला के इसके इकलौते बेटे को बीमार कर मार दिया, फ़िर बीमारी के खर्चे के नाम पर औने पौने दाम में इसकी सारी ज़मीन अपने नाम करवा ली..”
अदरक को पत्थर से कूँचते हुये चायवाले के मन का दर्द साफ झलक रहा था.
मेरी चाय खतम हो गयी थी, मैं निकलने के लिए उठ गया.
“क्या देख रहे हो बाबा?” - गुमटी से बाहर निकलते हुये मैंने उस गँवई से योंही पूछ लिया.
आँखों पर शेड बनाये हुए अपनी नज़र कहीं दूर टिकाये, बिना मेरी ओर देखे ही उसने कहा - “..आधा फ़ागुन बीत गया न.. चना और गेहूँ की फ़सलें तैयार हो गयी होंगीं..”
गाडि़यों की लम्बी कतारों और खड़ी होती ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों के बावज़ूद मानों वो अपने खेत को लहलहाता हुआ महसूस कर रहा था.
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(मौलिक व अप्रकाशित)
आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी, बहुत बढ़िया और द्रवित करती मार्मिक लघुकथा लिखी है आपने . हार्दिक बधाई. पुनः उपस्थित होता हूँ. सादर
आदरणीय मिथिलेश जी. आपके विचारों का हमेशा इन्तजार रहता है. आशा है विस्तृत विवेचना पढने का मौका देंगे.
सादर.
आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी, आपने बड़े शहरों के निकट के खेतों में उग रहे कांक्रीट के जंगल और एक किसान की विवशता और दर्द को जैसा शाब्दिक किया है वह अद्भुत है. इस लघुकथा पर मुग्ध हूँ. आपको बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर
आदरणीय विजय जी. कथा पर अपने विचार देने के लिये आभार. सादर.
आदरणीय शेख शाहजाद जी. कथा पर आने और अपने विचार देने के लिये आभार.
सादर.
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