रिश्तों का विशाल रूप, पूर्ण चन्द्र का स्वरूप,
छाँव धूप नूर-ज़ार, प्यार होतीं बेटियाँ।
वंश के विराट वृक्ष के तने पे डाल और,
पात संग फूल सा शृंगार होतीं बेटियाँ।
बाँधती दिलों की डोर, देखती न ओर छोर,
रेशमी हिसार ताबदार होतीं बेटियाँ।
दो घरों के बीच एक सेतु सी कमानदार,
राह फूल-दार साज़गार होतीं बेटियाँ।।
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अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’
Comment
आदरणीय अशोक भाई , प्रवाहमय सुन्दर छंद रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई
आदरणीय सौरभ सर, अवश्य इस बार चित्र से काव्य तक छंदोत्सव के लिए कुछ कहने की कोशिश करूँगा।
शिज्जू भाई, आप चित्र से काव्य तक छंदोत्सव के आयोजन में शिरकत कीजिए. इस माह का छंद दोहा ही होने वाला है
फेलुन फेलुन फाइलुन, फेलुन फेलुन फाअ
:-))
आदरणीय सौरभ सर, हार्दिक आभार, मेरा लहजा ग़जलों वाला है, इसके अतिरिक्त मैं दौहा ही ठीक-ठाक पढ़ लिख पाता हूँ। शायद यही वज्ह थी कि मैं पढ़ते समय अटक रहा था।
आदरणीय निलेश जी सादर, प्रस्तुत छंद पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार. होतीं 'हैं' के विलोप के कारण लिखा है. होती लिखने से काश वाला भाव अधिक प्रबल होगा. सादर
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी सादर, प्रस्तुत घनाक्षरी की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. सादर
आदरणीय भाई शिज्जु शकूर जी सादर, मेरा तो अनुभव रहा है, यदि कोई आपको रचना के पुनरावलोकन की सलाह दे रहा है तो इससे अच्छा कुछ नहीं है. स्वतः की गलतियाँ स्वतः को आसानी से नहीं दिखती हैं। सादर
आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, प्रस्तुत छंद पर आपकी सराहना पाकर रचनाकर्म सार्थक हुआ. आपका हृदय से आभार. सादर
आ. अशोक जी,
बहुत सुन्दर छन्द हुआ है ...बधाई स्वीकार करें.
एक शंका है...
होतीं बेटियाँ की जगह क्या होती बेटियाँ नहीं होना चाहिए?
होतीं से काश होतीं वाला बाव आता है.
होती definitive लगता है.
सादर
आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। उत्तम छंद हुए है। हार्दिक बधाई।
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