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आदरणीय डॉ बृजेश जी आप ने बहुत उम्दा कथानक चुना. बधाई इस कथानक के लिए. मगर यह एक प्रवाहमय लघुकथा नहीं बन पाई है. यानि पञ्च लाइन और प्रवाह उम्दा होता तो यह सब से उम्दा लघुकथा होती .
प्रतिभागिता हेतु अभिनन्दन स्वीकारें किन्तु यह रचना प्रदत्त विषय से बिलकुल भटकी हुई है आ० डॉ बृजेश कुमार त्रिपाठी जीI
जनाब बृजेश साहिब , अच्छी लघु कथा हुई है ..... मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
लघुकथा : साथी
.
“बाबूजी, कितनी बार कहा कि दरवाजे के सामने खड़ा यह बरगद का पेड़ कटवा दीजिये, पर आप है कि सुनते ही नहीं.”
“नहीं बेटा, यह पेड़ बहुत पुराना है और तुम्हारे दादा जी ने लगाया था, मेरा बचपन इसकी छाँव में बीता है.”
“किन्तु बाबूजी समूचे घर का लुक इस पेड़ के कारण ख़त्म हो जाता है.”
“ऐसा नहीं है बेटा इस पेड़ के कारण ही सामने की सड़क से आने वाली गन्दी हवायें सीधे घर में नहीं आती.”
“बाबूजी, मैं ये सब नहीं जानता, मैंने लकड़हारों को बुलवा लिया है आज ही यह पेड़ कटेगा.”
पेड़ और बाबूजी की सांसे शाम होते होते कट गये. दरवाजे पर पहरेदारी करती खांसती आवाज सदा के लिए खामोश हो गयी थी.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय शेख़ शाहज़ाद उस्मानी जी.
प्रदत्त विषय को बखूबी परिभाषित किया है भाई गणेश बागी जीI पेड़ और बाबूजी की साँसों को एक सामान बताकर लघुकथा को और भी मार्मिक बना दिया हैI इस सुंदर लघुकथा पर हार्दिक बधाई प्रेषित हैI
आदरणीय गुरुदेव, आपसे प्रशंसा पा कर यह लघुकथा सार्थक हुई, बहुत बहुत आभार.
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