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वाह ! दिल झूम उठा ये लघुकथा पढ़कर। क्या खूब आकाश को धुंधला-धुंधला किया है आपने। कथ्य को आपकी इस कथा में सटीक आकार प्राप्त हुआ है। ढेरों बधाई इस सार्थक लघुकथा के लिए आदरणीय डॉ विजय शंकर जी।
रंग आकाश का आकाश जैसा ही नीला होना चाहिए और मिटी का एक - एक कण खेत में ही होना चाहिए। तभी सब रंग अच्छे लगते हैं
इस पंक्ति ने लघु कथा को ऊँचाई पर पँहुचा दिया बहुत खूब आ० डॉ विजय शंकर जी बहुत- बहुत बधाई
ख़याली आज़ादी--
" हद है ये तो, दुकान खोल ली है, तमाम ग्राहकों से बात करना है पर शरीर पर बुर्का पड़ा हुआ है| पता नहीं कब मिलेगी इनको आज़ादी इन सब से", बोलते हुए वो बिल का भुगतान करने के लिए काउंटर पर खड़ी महिला के पास जाने लगा| साथ चल रही पत्नी, जो किसी कार्यालय में काम करती थी, की निगाह अचानक एक अच्छे ड्रेस पर गयी और वो लपक कर उसे उठा लायी|
" ये क्या उठा लायी, कुछ भी पूछने की जरुरत नहीं, बस ले लिया जो मन आया| रखो इसको वहीँ पर, जहाँ से लायी थी", बोलते हुए वो सामान काउंटर पर रख कर बिल का इंतज़ार करने लगा|
पत्नी के चेहरे पर कई रंग आये और गए| उसने ड्रेस को वापस रखकर लौटते हुए एक बुर्का उठा लिया, अपने अदृश्य बुर्क़े से तो वो बेहतर लग रहा था उसको|
मौलिक एवम अप्रकाशित
बेहद सधी हुई लघुकथा कही है भाई विनय कुमार सिंह जीI पति के रूखे व्यावहार के प्रत्युत्तर में पत्नी की प्रतिक्रिया गज़ब लगीI इस अर्थगर्भित लघुकथा हेतु मेरी दिली बधाई स्वीकार करेंI
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