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कथा थोड़ी बड़ी तो हो गई ,ब्रदर। है न ? मगर बात भी कौन सा छोटी थी। सामयिक विषय पर आपकी दृष्टि पड़ी और सच भी यही है आखिर को तो उसे निःशब्द होना ही था। यही अंत हो सकता था , जो आपने किया।
हार्दिक बधाई आदरणीय सतविंदर कुमार जी !बेहतरीन प्रस्तुति!
समसामयिक विषय पर सुन्दर कथा बुनी है आपने .तिरंगे के तीनों रंग मिलकर ही बनता है भारत ,मुट्ठी भर स्वार्थी लोग किसी भी रंग के हों ,तोड़ नहीं सकते इसे , पुनः बधाई इस रचना पर आदरणीय सतविंदर जी
भाई सतविंदर कुमार जी, आप उन चुनिन्दा लघुकथाकारों में से एक हैं जिनसे निजी तौर पर मुझे और समूचे तौर पर इस मंच को बहुत सी आशाएँ हैंI मैं आपको एक ऐसे प्रतिभाशाली लघुकथाकार के रूप में देखता हूँ जो भविष्य में इस विधा का परचम बुलंद कर रहे होंगेI आपकी लघुकथा पर हमारे विद्वान साथियों ने खुल कर बात की, अपने अपने विचार भी प्रस्तुत किएI आपकी यह लघुकथा पढ़कर मुझे ख़ुशी तो हुई किन्तु आत्मिक संतोष प्राप्त नहीं हुआI कथानक और कथा दो अलग अलग चीज़ें हैं, कथानक की दृष्टि से आपकी लघुकथा अति-उत्तम है किन्तु फाइनल प्रोडक्ट उस स्तर को नहीं छू पाया जिसकी मुझे आशा थीI
देखिए, आपने जो लिखा और जो सन्देश देना चाह वह पाठक तक साफ़ साफ़ पहुँच रहा हैI किन्तु, लघुकथा की सुन्दरता इसमें है कि बिना कहे ही सब कुछ कहा जाएI इस विधा की कुछ विशेषताएँ हैं और इशारों में अपनी बात कह जाना उनमे से एक हैI हरे रंग का ज़िक्र करके आपने अपनी बात तो साफ़ कर दी, लेकिन बात और भी वज़नदार हो जाती अगर हरे रंग का ज़िक्र ही न किया जाताI क्योंकि मौजूदा दौर में यह रंग किस चीज़ से जुड़ा या जोड़ दिया गया है, कहने की आश्यकता ही नहींI
दूसरी किन्तु अति महत्वपूर्ण बात; लघुकथा एक "लेखक विहीन" विधा हैI लघुकथा कहते हुए "स्वयं" को तो इससे दूर रखना ही होता है, उसके साथ ही अपने सामजिक स्तर, लिंग, धर्म, आयु, शिक्षा एवं राजनैतिक सोच को भी दरकिनार रखते हुए रचनाकर्म करना होता हैI वर्ना रचनाकार के बायस्ड होने की पूरी पूरी सम्भावना रहती हैI "जिन मुल्कों में हरा रंग कायम है तुम लोग सबसे ज़्यादा उनके ही अमन और चैन को ख़ाक किए जा रहे हो। क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता?" यह स्टेटमेंट सच होते हुए भी एक पूर्वधारणा से ग्रस्त है, जोकि रचना में लेखक के अनधिकृत प्रवेश का परिणाम हैI लेखकीय दायित्व के साथ साथ हमे भारतीय होने के नाते अपने सोशल फेब्रिक को अक्षुण्ण रखने के लिए हमेशा जागरुक रहना होगाI चंन्द मुठ्ठी भर शैतानो की वजह से किसी भी एक समुदाय को कटघरे में खड़ा करना सर्वदा अनुचित हैI
यह बात सदैव याद रहें कि लघुकथा ईख से बनी हुई वह लाठी है जो चोट तो ज़बरदस्त करती है, लेकिन शरीर पर निशान नहीं पड़ने देतीI इसकी चोट के निशान मन-मस्तिष्क पर ही पड़ा करते हैंI अपने साले को "मेरा साला" कह कर परिचय करवाना उज्जडतापूर्ण सपाट बयानी है, जबकि उसे "मेरे बच्चो के मामा जी" या "मेरे पत्नी के भय्या" कहना शालीनता भी है भद्र्तापूर्ण व्यवहार भीI बस यही गुण हमें अपनी लघुकथाओं में भी पैदा करना हैI
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