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इकड़ियाँ जेबी से’ – एक पाठकीय समीक्षा

 

अंजुमन प्रकाशन,  इलाहबाद की साहित्य सुलभ संस्करण योजना की आठों पुस्तकों को अपने हाथों में पाना विशेष रूप से एक समृद्ध कर देने वाला शब्दातीत अनुभव रहा चूँकि ये पुस्तकें एक विशेष योजना के अंतर्गत प्रस्तुत हुई हैं तो ये बेहद स्वाभाविक है कि पाठक की दृष्टि से इनमें साहित्यिक तत्वों की तलाश की जाय । इन पुस्तकों में से एक है, सौरभ पाण्डेय जी की इकड़ियाँ जेबी से । इस पुस्तक के प्रति जिज्ञासा भी बनी थी । कारण कि, सौरभजी के लेखन-चिंतन-दर्शन की उत्कृष्टता और गहनता से पूर्व-परिचित होना मेरे लिए अक्सर विस्तार के अवसर उपलब्ध कराता है । दूसरा कारण है, इस काव्य-संग्रह के शीर्षक इकड़ियाँ जेबी से का भोलापन, जो अपने आप में ज़मीन से जुड़े निश्छल निर्मल रचनाकर्म की गवाही देता, अपने पन्नों से गुजरने को बरबस आकृष्ट करता है ।

 

अतः सर्वप्रथम ये स्पष्ट कर देना यहाँ ज़रूरी है, कि आखिर इस काव्य-संग्रह में वो तत्व कौन से हैं, जिन्होंने मुझे संतुष्ट किया.  

1. भाव-भूमि, परिदृश्य, शब्द-शैली, कथ्य-सांद्रता, संप्रेषणीयता के स्तर पर रचनाओं का पाठक से सीधा सम्बन्ध बनाना । कविता के तत्वों रस, बिम्ब, लय, प्रवाह, अलंकारिकता, शब्द-संयोजन, मात्रिकता, विधा-सम्मत प्रारूप में मौजूद होना ।

 

2. मेरा पाठक बार-बार विस्मित होता रहा कि शब्द सुन्दर हैं या उनमें सन्निहित पारिस्थिक अर्थ । शब्दों के चयन व अर्थ की उत्कृष्टता में निहित सौन्दर्यबोध तथा उनमें अंतर्निहित शिवत्वबोध के मध्य होड़ सी महसूस हुई । यहाँ मैं शिवत्व बोध पर विशेष आग्रह करूँगी, क्योंकि इसी विन्दु पर यह पुस्तक अपनी वैचारिक उत्कृष्टता के प्रतिमान भी गढ़ती है

 

3. रचनाओं का सामाजिक, नैतिक दायित्व निर्वहन की भावना से व्याप्त सत्य को न केवल प्रस्तुत करना बल्कि उनके कारणों व निवारणों को भी साथ लेते हुए पाठकों को समृद्ध करने क्षमता रखना ।

4. रचनाओं के कथ्य का सामान्य पाठक की मनोदशा, अनुभवों, दर्शन से हामी लेने में सक्षम होना । या इससे भी आगे, कथ्य में चिंतन दर्शन के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण बिंदुओं का सन्निहित होना जो पाठकों की चेतना में विस्तार की सामर्थ्य रखते हैं ।

5. रचनाओं में अन्तर्निहित चेतना का पाठक की अनुभूतियों के संचित कोष को इस तरह स्पंदित करना कि रचनाओं से गुज़रना विशिष्ट भावदशा को संतृप्ति तक जीने का अनुभव बन जाए ।

6. रचनाएँ पाठक को सोच के, कल्पनाओं के, अनुभूतियों के एक गहन सागर में ले जायें, जहाँ कुछ पल ठहर पाठक का मन विश्रांति पाए और वहाँ से वापिस लौट आने पर कुछ अनमोल प्राप्त हो जाने के भाव को महसूस करे ।

 

इकड़ियाँ जेबी से रचनाकार का प्रथम काव्य संग्रह है, जिसमें रचनाओं को पाँच काव्य-खण्डों में संजोया गया है । प्रथम तीन खण्ड अतुकांत सम्प्रेषण-शैली के है; चौथा खण्ड गीत-नवगीत का है तथा पाँचवें खण्ड में रचनाकार की छंदबद्ध कृतियाँ हैं । सौरभ जी का लेखन जिन बहुकोणीय तथ्यों पर आधारित होता है उसका आकलन आवश्यक मापदंडों के आधार पर करना प्राथमिकता होगी । इस परिप्रेक्ष्य में यह अवश्य है कि प्रस्तुत काव्य-संग्रह रचनाकार की मुखरित अन्त:वाणी है.

 

काव्य-संग्रह के प्रथम खण्ड भाव-भावना-शब्द में अंतर्भावों का सागर समेटे रचनाकार की नौ रचनाएँ संकलित हैं, जो पाठक के अंतर्मन को झकझोरती, संवेदित करती और आर्द्र करती अपनी हर शब्द-बूँद में देर तक डुबोए रखती हैं. भाव-सांद्रता और इंगितों के माध्यम से गहन मानवीय अनुभूतियों को साझा किया जाना इस खण्ड की विशेषता है

 

किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?

लगातार रीतते जाने के एहसास को

इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !                              

(‘सूरज से’ से)

 

इन पंक्तियों में आकृति पाता शब्द-चित्र लगातार कुछ खोते जाने की छटपटाहट को एक अनुभव की तरह महसूस करा सकने में सक्षम है ।  काव्य की खूबसूरती यकीनन उसके शब्दों में निहित होती है । लेकिन कई बार रचनाओं को एक ऐसे अनकहे छोर पर छोड़ देना रचनाओं को एक अलग ही ऊँचाई प्रदान करता है, जहाँ पाठक अनुभूतियों की खूबसूरत परिधि में रह कर भी वैचारिक रूप से स्वतंत्र हो । यह रचनात्मकता यकीनन लेखन में मनन और वैचारिक परिपक्वता के बाद ही आती है ।

 

उनकी अल्हड़ मासूमियत पर जाने क्यों

मेरी आँखों की समझदार कोर तक

नासमझ बनी

नम-नम हुई जाती है

कि, काश.. काश..

काश..                                     

(‘स्मृतियों के दरीचे से’ से )

 

कुछ शब्द-चित्र एकदम से आश्चर्यचकित करते हैं, जैसे -

 

वो एक है

जो मौन सी

मन के धुएँ के पार से

नम आस की उभार सी

ठिठकन की गोद में पड़ी                          

(‘एक जीवन ऐसा भी’ से )

 

यहाँ ठिठकन शब्द एक परिवार की आतंरिक भाव बुनावट को सशक्तता के साथ सजीव कर उठता है । या, एक कर्मरती कठोर पिता जीवन के कोलाहल से बिलकुल विपरीत अचानक नन्ही बच्ची की अप्रत्याशित आर्त पर विह्वल दीख जाता है ।

बेबसी की मूर्त रूप सहम सहम के बोलती

पापा जल्दी...

ना, पापा ज़रूर जाना....”                    

(‘एक जीवन ऐसा भी’ से )

 

शीर्षक कविता इकड़ियाँ जेबी से वाकई घंटों तक निःशब्द कर देती है इस सोच से, कि “बालमन कैसे नहीं भाँप पाया आगामी-अतीत?” आगामी-अतीत के इन दो शब्दों के चमत्कृत प्रयोग ने जैसे ज़िंदगी के एक बहुत लम्बे सफ़र को अपने में समेट लिया है और पाठक स्वयं को अपने बचपन की भूली-बिसरी किसी गली में खुद को देर तक तलाशता दीखता है ।

 

पनियायी आँखें बोई हुई माज़ी टूंगती रहती हैं अब..

देर तक !

पर इस लिजलिजे चेहरे से एक अदद सवाल नहीं करतीं

कि, इस अफसोसनाक होने का आगामी अतीत

वो नन्हा सब कुछ निहारता, परखता, बूझता हुआ भी

महसूस कैसे नहीं कर पाया था !”   

(’इकड़ियाँ जेबी से से)

 

इसी क्रम में ना, तुम कभी नहीं समझोगे कविता में संगिनी की क्लिष्ट मनोदशा को, उसके त्याग व समर्पण को, प्रेम व विरह को, प्रियतम द्वारा न समझे जाने पर व्याप गये एकाकीपन को बहुत ही मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति मिली है । नारी की अंतर्वेदना की ऐसी गहन अभिव्यक्ति रचनाकार की मानवीय संवेदनशीलता के प्रति आश्वस्त करती है । अनुभूति : एक भूमिका में रचनाकार साक्षी भाव से प्रेयसी से विछोह की विवशता और स्तब्धता को स्वीकार करता दिखता है । साथ ही पाठक भी अपने आप को इस वेदना से जुड़ा अनुभव करने लगता है और भाव-सघनता में ठहर जाता है ।

 

ख़याल ही नहीं आता मन में

कि उसके होनेपन की अनुभूत संज्ञा का

एक घटना मात्र बन कर

स्मृतियों के बियावान कोने में सिमट जाना भी

कभी एक चीखती हुई सच्चाई होगी                         

(‘अनुभूति : एक भूमिका’ से)

 

अनुभूति, एक भूमिका से आगे में शक्ति की भौतिक रूप से अभिव्यक्त हुई विभिन्न संज्ञाओं को जिस गहन अनुभूति, संवेदनशीलता, कृतज्ञता से शब्द मिले हैं, वे बहुत प्रभावित करते हैं । जहाँ मातृ रूप में वात्सल्य बरसाती शक्ति है, तो वहीं भगिनी बन बलैया लेती दुआएँ मांगती शक्ति का प्रारूप भी है । जहाँ तनया रूप में शक्ति का निर्दोष विस्तार प्रतीत होता है, तो वहीं भार्या बन रोम-रोम में बसती हुई, पारस्परिक अस्तित्व को अर्थ प्रदान करती शक्ति का रूप भी व्याख्यायित होता है । शक्ति के प्रत्येक प्रारूप के साथ रचनाकार का अपने अन्तर्निहित व्यक्तित्व का अर्थ तलाशते हुए जीते जाना बतौर पाठक उक्त अनुभूतियों को वास्तव में जी लेने जैसा ही प्रतीत होता है । इसी खण्ड की अंतिम रचना रिश्ते शर्तों पर निभते मानवीय संबंधों की बेरहम, अंतरमन को छलनी करती पीड़ा की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है।

 

काव्य-संग्रह का द्वितीय खण्ड ‘शब्द चित्र’ है, जिसमें रचनाकार नें पाँच शीर्षकों के अंतर्गत शब्द-चित्र प्रस्तुत किये हैं । सभी शब्द-चित्र कथ्य-सांद्रता का विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ।

 

अधमुँदी आँखों की विचल कोर को नम होने देना

उसका प्रवाह भले दिखे

वज़ूद बहा ले जाता है                              

(‘शक्ति : छः शब्द रूप से)

 

नारी की अंतर्निहित संभावनाओं के परिप्रेक्ष्य में शांत दिखती शक्ति की प्रचंडता को और कैसी अभिव्यक्ति चाहिए ? हमारे तथाकथित सभ्य समाज में व्याप्त विसंगतियों से उपजी छटपटाहट कवि के हृदय को कचोटती हुई जीवन के कुछ धूसर रंग में अभिव्यक्त हुई हैं -

 

मांग खुरच-खुरच भरा हुआ सिन्दूर

ललाट पर छर्रे से टांकी हुई

येब्बड़ी ताज़ा बिंदी

खंजरों की नोंक से पूरी हथेली खींची गयी

मेंहँदी की कलात्मक लकीरें !

फागुन..

अब और कितना रंगीन हुआ चाहता है                    

(‘जीवन के कुछ धूसर रंग से)

 

क्या हैवानियत के रंग इससे भी ज्यादा धूसर हो सकते हैं ? प्रतीकों को गहन भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बना कर बड़ी-बड़ी बातें चंद शब्दों में कह देना अनुभव से ही संभव है ।

 

अभागन के हिस्से का अँधेरा कोना

चाँद रातों का टीसता परिणाम है                             

(‘चाँद : पाँच आयाम से)

 

काव्य-संग्रह के तीसरे खण्ड ‘यथार्थ चर्चा में रचनाकार ने छः रचनाओं को स्थान दिया है । इस खण्ड की अभिव्यक्तियाँ समाज में व्याप्त कठोर सच्चाइयों को एक आईने की तरह प्रस्तुत करती हैं । यह रचनाकार के सजग व सार्थक रचनाकर्म की बानगी है । अक्सर सौरभ जी को कहते सुना है कि एक रचनाकार समाज के श्राप को जीता हैयथार्थ चर्चा खण्ड में प्रस्तुत रचनाओं से गुज़र कर उक्त कथ्य के भावार्थ और तात्पर्य को पहचाना जा सकता है ।

 

सिलवटें कहीं हों...

काग़ज़ पर..

या फिर....ओह, कहीं भी

निःशब्द रातों की मौन चीख का

विस्तार भर हुआ करती हैं                                      

(‘चीख सिलवटों की से)

 

किसी ज़रीये के शफ्फाकपन हेतु इस्तेमाल होकर दाग लग जाने के कलंक को, वेदना को बहुत संवेदनशीलता से यह रचना मुखरित करती है, और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है । इसी तरह ‘परिचय’ का गाम्भीर्य चकित तो करता ही है, बाँध भी लेता है ! परिचयात्मकता के नाम पर इस्तेमाल किये जाने का दंश, तमाम चाल पाठक महसूसता है ।

 

इकड़ियाँ जेबी से काव्य-संग्रह का चौथे खण्ड में सोलह गीतों-नवगीतों को स्थान मिला है । गीतों की लयात्मकता जहाँ अपने साथ बहाये लिए जाती है, वहीं अभिनव बिम्बों की रोचकता चिंतन को झंकृत भी करती है, तो अनुभूतियों को स्पंदित भी करती है ।   यहाँ प्रेम का स्पर्श, आंतरिक शक्ति, संबंधों में उथलापन, संवेदनाओं में सतहीपन को मुखर स्थान मिला है ।

 

गुच्ची-गढ्ढे

उथले रिश्ते

आपसदारी कीच-कीचड़

पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती

घाव हृदय के बेतुक बीहड़                       

(‘बारिश की धूप से)

 

उन्नत दर्शनयुक्त सांस्कृतिक सामाजिक इतिहास के बावज़ूद सुप्त पड़े मानस को झकझोरने के लिए कवि ओजस्वी आह्वाहन करता है.

 

शिथिल मानस पे वार कर, जो कर सके तो कर अभी

प्रहार बार-बार कर, जो कर सके तो कर अभी...!                       .

(‘जो कर सके तो कर अभी से)

 

सरल भाषा, सहज शैली, माधुर्य और संवेदनाओं को सूक्ष्मता से प्रस्तुत किये जाने के कारण कुछ नवगीत विशेष ज़िक्र चाहते हैं ।

 

आँखों को तुम

और मुखर कर नम कर देना

इसी बहाने होंठ हिलें तो

सब कह जाना

नये साल की धूप तनिक तुम लेते आना 

(‘नए साल की धूप से)

 

काव्य-संग्रह का अंतिम खण्ड ‘छन्द प्रभा भारतीय सनातनी छंदों का एक विलक्षण समुच्चय है जिसमें चिंतन, दर्शन, अनुभूति, अध्यात्म, साधना के गहन सागर में उतर चुन-चुन के हीरे-पन्ने-मोती रचनाकार नें तराश-तराश कर पिरोये हैं । दोहा, कुण्डलिया, उल्लाला, दुर्मिल सवैया, मत्तगयन्द सवैया, भुजंगप्रयात, घनाक्षरी, आल्हा, हरिगीतिका, अमृतध्वनि आदि छंदों पर उत्कृष्ट रचनाएं न केवल शिल्प पर कसी हुई है बल्कि आतंरिक शब्द संयोजन और कलों के निर्वहन के साथ प्रवाह की उत्कृष्टता पर भी खरी उतरती हैं । सतत रचनाकर्म यहीं रचना-धर्म में परिणित हो जाता है जब सनातनी विरासत को संजोते हुए रचनाकार उच्चतम कथ्य व सत्य भाव का सम्प्रेषण परम्परागत छंदों में आधुनिकता परिदृश्य के साथ करता है।

 

आँखें : उम्मीदें तरल, आँखें : कठिन यथार्थ

आँखें : संबल कृष्ण सी, आँखें : मन से पार्थ।।

 

एक श्रेष्ठ सचेत सांसारिक व्यक्ति द्वारा संतुलित व्यवहार ही अपेक्षित होता है, किसी भी सकारात्मक चर्चा को जो मनबुद्धि दोनों के परिवर्धन का कारण हो सकती है । व्यावहारिक शिष्टाचार व सदभावनाओं से ही मनुष्य श्रेष्ठ होता है. ऐसे सद्भावों और उत्कृष्ट कथ्ययुक्त यह प्रस्तुति सिर्फ पाठन नहीं अपितु मनन चिंतन व आचरण में ढालने के लिए आवश्यक वैचारिक तत्व उपलब्ध करा रही है । भुजंगप्रयात छंद में रचित मैं कुम्हार रचनाधर्मिता का एक सुन्दर उदाहरण है । सार्थक शब्द-विन्यास, अंतर्गेयता, अंतर्मन को स्पर्श करती एक कुम्हार की आत्मगाथा, उसकी ज़िंदगी की कटु सच्चाई को प्रस्तुत करती है ।

 

कलाकार क्या हूँ.. पिता हूँ अड़ा हूँ

घुमाता हुआ चाक देखो भिड़ा हूँ

कहाँ की कला ये जिसे खूब बोलूँ

तुला में फतांसी नहीं पेट तोलूँ                                 

(‘मैं कुम्हार से )

 

काव्य-संग्रह की रचनाओं में पाठक की चेतना में अपेक्षित विस्तार कर सकने का सामर्थ्य है । रचनाएँ ठहर कर पढ़ी जायँ तो वे पाठक को उसी के चिदाकाश में ले जाती हैं, जहाँ नैसर्गिक मौन उसकी चेतना को ऊर्जस्विता से सराबोर कर देता है ।

मैं इस काव्य-संग्रह के लिए सौरभ पाण्डेय जी को हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करती हूँ..

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Replies to This Discussion

प्रबुद्ध पाठक लेखकों से मात्र भावुक रचनाओं की अपेक्षाएँ ही नहीं करते बल्कि ऐसे पाठकों को तथ्यपरक प्रस्तुतियों की अपेक्षा रही है. यह अपेक्षा सदा से साहित्य को अर्थवान बनाये रखती है. तभी तो सचेत पाठक प्रस्तुतियों पर मुखर समर्थन भी करते हैं तो विन्दुवत आलोचना भी.
 
आदरणीया प्राचीजी द्वारा ’इकड़ियाँ जेबी से’ पर हुई गहन समीक्षा तथा विन्दुवत चर्चा एकबारगी ध्यान तो खींचती है, एक मानक भी स्थापित करती है कि किसी पुस्तक की समीक्षा किन मायनों में सार्थक मानी जानी चाहिये. तभी तो किसी लेखक के लिए ऐसी समीक्षा मार्गदर्शन बन कर सामने आती है.  तो, अन्य पाठक के लिए सकारात्मक सलाह बनती है. कोई लेखक रचनाकर्म क्यों करे या इसके आगे वह किसी पुस्तक के प्रकाशन हेतु उत्सुक क्यों हो के सापेक्ष लेखकों को जहाँ संतुष्टिकारक सुझाव चाहिये, वहीं कोई पाठक पुस्तक क्यों पढ़े या पढे तो किन-किन विन्दु के प्रति वह आग्रही हो का स्पष्ट वर्णन होना आवश्यक है.
इन विन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में एक लेखक के तौर पर मुझे आदरणीया प्राचीजी की समीक्षा से गुजरना एक अनुभव तथा सीख दोनों रहा.

मैं व्यक्तिगत तौर पर अपनी पुस्तक ’इकड़ियाँ जेबी से’ का बहुत कड़ा समीक्षक रहा हूँ. अपनी प्रस्तुति से संतुष्ट हो जाना रचनाकर्म का अंत है जैसी प्रचलित कहावत मेरे लिए मात्र कहावत नहीं है. लेखकीय आत्ममुग्धता की भी कोई सीमा होती है जो किसी प्रस्तुति के प्रकाशित होते ही स्पर्श हो चुकी होती है. इसके बाद कोई आग्रह कुछ और हो सकता है, लेखकीय कत्तई नहीं हो सकता. बल्कि अपने लेखन के प्रति किसी समीक्षक की तरह निर्मम होना मेरी दृष्टि में एक लेखकीय अनिवार्यता है, जो भविष्य की प्रस्तुतियों के लिए आवश्यक मानक गढ़ती है. यों ऐसा मानना एकदम से मेरी व्यक्तिगत मान्यता है. हालाँकि इस सोच के कारण ’अपनी चीज’ के लिए मार्केटिंग को आतुर तथा आग्रही आजकी दुनिया में अतुकान्त की स्थिति ही बन जाती है. खैर.

आदरणीया प्राचीजी, आपकी स्पष्ट, विन्दुवत समीक्षा के लिए हार्दिक आभार.
सादर
 

आदरणीय सौरभ जी,

आपने इस समीक्षा को जो विनम् मान देते हुए स्वीकार किया है उसके लिए आपको हृदयतल से धन्यवाद.

वस्तुतः समीक्षा किसी रचनाकार की कृति का आईना होती है.. आपकी रचनाओं की गहनता नें बतौर पाठक मेरी अनुभूतियों को जिस तरह स्पर्श किया मैंने उसी को अपने काव्य ज्ञान के सापेक्ष टटोलते हुए अपनी पाठकीय प्रतिक्रया देने की चेष्टा की है... यह आपको सार्थक लग सकी यह मेरी पाठकीयता के लिए भी आश्वस्ति का कारण हुआ है..

रचनाकार जब तक अपनी रचनाओं का कड़ा समीक्षक स्वयं ही नहीं होता ...तब तक रचनाओं में परिष्कार की संभावनाएं भी गौड़ ही रहती हैं.. अपनी रचनाओं के प्रति यही दृष्टिकोण रचनाकार के गंभीर रचनाकर्म के प्रति पाठकों को आश्वस्त भी करता है... और ऐसी रचनाओं को मार्केटिंग के प्रति आतुर होने की कभी आवश्यकता भी नहीं रहती....साहित्य जगत में ऐसी रचनाएं अपना स्थान स्वतः ही बना लेती हैं.

इस समीक्षा की स्वीकार्यता के लिए आपको पुनः धन्यवाद आदरणीय 

सादर.

प्रिय प्राची जी बहुत सुन्दर समीक्षा की है जहाँ एक और पुस्तक के हर पहलु को छुआ है वहीँ दूसरी और प्रस्तुतियों के भाव तथ्य पर अपने द्रष्टिकोण से विशुद्ध विश्लेषण भी किया|जिन पंक्तियों को आपने उद्धत किया है वो सचमे बहुत विशेष हैं जो मुझे भी बहुत पसंद हैं  

मांग खुरच-खुरच भरा हुआ सिन्दूर

ललाट पर छर्रे से टांकी हुई

येब्बड़ी ताज़ा बिंदी

खंजरों की नोंक से पूरी हथेली खींची गयी

मेंहँदी की कलात्मक लकीरें !

फागुन..

अब और कितना रंगीन हुआ चाहता है   -----बरबस ही पाठक को खींचती हैं ये पंक्तियाँ एक द्रश्य तैरने लगता है आँखों के सम्मुख 

बहुत -बहुत बधाई इस न्यायसंगत  समीक्षा के लिए .

आपकी गुण-ग्राहकता के प्रति नत हूँ, आदरणीया राजेशकुमारीजी. आप जैसे सुधीपाठकों का संबल ही किसी रचनाकार की थाती हुआ करती है.

सादर

आदरणीया राजेश कुमारी जी 

आपको यह समीक्षा सार्थक लगी और पुस्तक के भाव कथ्य के साथ न्याय करती लेगी, यह बतौर समीक्षक मेरे लिए आश्वस्ति का कारण हुआ है.. आपके अनुमोदन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.

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