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"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक - 36 (Now closed with 966 Replies)

आदरणीय साहित्य प्रेमियो,
सादर अभिवादन ।


 महा-उत्सव के नियमों में कुछ परिवर्तन किये गए हैं इसलिए नियमों को ध्यानपूर्वक अवश्य पढ़ें |

पिछले 35 कामयाब आयोजनों में रचनाकारों ने विभिन्न विषयों पर बड़े जोशोखरोश के साथ बढ़-चढ़ कर कलमआज़माई की है. जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी सिलसिले की अगली कड़ी में प्रस्तुत है :

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक - 36
विषय - "परम्परा और परिवार"
आयोजन की अवधि-  शुक्रवार 11 अक्टूबर 2013 से शनिवार 12 अक्टूबर 2013 तक 

(यानि, आयोजन की कुल अवधि दो दिन)
तो आइए मित्रो, उठायें अपनी कलम और दिए हुए विषय को दे डालें एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति. बात बेशक छोटी हो लेकिन ’घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य-समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी अप्रकाशित पद्य-रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.

उदाहरण स्वरुप साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --
तुकांत कविता
अतुकांत आधुनिक कविता
हास्य कविता
गीत-नवगीत
ग़ज़ल
हाइकू
व्यंग्य काव्य
मुक्तक
शास्त्रीय-छंद  (दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि-आदि)

अति आवश्यक सूचना :-
ओबीओ लाईव महा-उत्सव के 36 में सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अधिकतम दो स्तरीय प्रविष्टियाँ अर्थात प्रति दिन एक ही दे सकेंगे, ध्यान रहे प्रति दिन एक, न कि एक ही दिन में दो. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.

सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर एक बार संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.

आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है. 

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं. 

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.   

(फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 11 अक्टूबर दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा) 

यदि आप किसी कारणवश अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तोwww.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें.

महा-उत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
"OBO लाइव महा उत्सव" के सम्बन्ध मे पूछताछ
 

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" के पिछ्ले अंकों को पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करें
मंच संचालिका 
डॉo प्राची सिंह 
(सदस्य प्रबंधन टीम)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम.

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Replies to This Discussion

आदरणीया प्राची जी, मान देने हेतु हृदय से आभार................

तुम्हीं बताओ कैसे समझूँ, पिंजरे को अब मैं घरद्वार
साँकल  की हैं  चढ़ी  त्यौरियाँ, आंगन-आंगन है दीवार ||
कटे  हुये  पर धुँधली आँखें, क्या देखूँ नभ का विस्तार
बंदीगृह – सी   लगे   जिंदगी ,  आँसू - आँसू  पहरेदार |--वाह वाह ! बहुत खूब | उत्तम गीत के लिए हार्दिक बधाई भाई अरुण जी 

स्थापित अब करना होगा, कह सकते जिसको घरबार 

माहौल बनाओ ओबीओ सा, बरसे जहाँ पर ढेरों प्यार

बढ़ सकता है जहां पर कोई, पा सकता है वह विस्तार

लगे न बंदी गृह सा जीवन, जैसा चाहे ले ले आकार | 

आदरणीय अरुण निगम जी सादर,

      समृद्ध संस्कृति एवं  प्राचीन परम्परा पर आधारित, पोषित परिवार खुशहाली की देन थे किन्तु आज  पाश्चात्य संस्कृति में वही परिवार बिखरकर बदहाली के उदाहरण बन चुके है. परम्परा एवं परिवार के मूल व्यथा कथा  तथा दुर्दशा की सम्यक विवेचना इस सम्पूर्ण रचना में आपने की है आदरणीय बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें.

//तुम्हीं बताओ कैसे समझूँ, पिंजरे को अब मैं घरद्वार
साँकल  की हैं  चढ़ी  त्यौरियाँ, आंगन-आंगन है दीवार ||//

आदरणीय निगम साहब,ऐसी रचनाएँ देख कर / पढ़ कर पता चल जाता है कि रचनाकार ने बहुत समय देकर रचना को सृजित किया है, शब्द दर शब्द और पक्ति दर पक्ति रचना बोलती लगती है, मुझे बहुत ही  अच्छी लगी यह रचना,शिल्प और कथ्य दोनों स्तर पर वाह वाह, बहुत बहुत बधाई । 

ओह !.. जिस आत्मीयता और गहनता से आपने प्रस्तुत रचनाकर्म किया है, आदरणीय अरुण भाईजी,  वह आपकी संवेदनशीलता को बखूबी समक्ष ला रहा है. वीर छंद में बधी हर पंक्ति हृदय की सतह को खखोर कर रख देती है. परिवार और पारिवारिक परम्पराओं की वर्तमान स्थितियाँ अपने मुखर रूप में प्रस्तुत हुई हैं. आपकी इस उन्नत रचना पर आपको हृदय से बधाइयाँ. मन मुग्ध है ही, भाव-विह्वल भी है.


जिस आत्मीयता से आपने रचनाकर्म किया है, यह उदाहरण होना चाहिये नव-हस्ताक्षरों के लिए. लेकिन सदस्यों को, आप बुरा न मानें आदरणीय, आपके माध्यम से कह रहा हूँ, Add Reply या Reply to this के बटन इतने आग्रही लगते हैं कि अपने अधकचरे कर्म और टिप्पणियों पर ही पाठकों को न्यौत देते हैं और सूचित कीजिए तो सुधार के लिए संचालक या ऐडमिन के पास य्येल्लम्बी फ़ेहरिश्त जाती है.

सदस्य यदि नये हों तो सभी के मन में उत्साह रहता है. लेकिन पुराने सदस्यों के अधकचरे कर्म पर कोफ़्त होती है. और वे कहेंगे कि ओबीओ पर कड़ाई बहुत है. इससे भला तो फेसबुक या वे साइट  जहाँ  ’अपने भाव, अपने शब्द या अपने विचारों’ के लिए कमसेकम सम्मान तो मिलता है !! ..
शुभ-शुभ
 

वाह  वाह बहुत ही सुंदर रचना आदरणीय अरुण सर ... कमाल की प्रस्तुति ... हार्दिक बधाई  आपको

वाह... वाहहहहहहहह......वाहहहहहहहहहहहहहह कितनी सुंदर एवं प्रवाहमयी रचना....... इसे इस उत्सव की अब तक की सबसे सशक्त कृति कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.....

अंडे  से  चूजे  ना  निकले , चले  घोंसला अपना छोड़
सुविधाओं की भाग-दौड़ में, रिश्तों से अपना मुँह मोड़ ||
नई  सभ्यता  पापन आई , किया नहीं था अभी प्रहार
परम्परा  के  जर्जर  पर्दे ,  दरक  गई  घर  की  दीवार ||......... एक कटु सत्य....

तुम्हीं बताओ कैसे समझूँ, पिंजरे को अब मैं घरद्वार
साँकल  की हैं  चढ़ी  त्यौरियाँ, आंगन-आंगन है दीवार ||
कटे  हुये  पर धुँधली आँखें, क्या देखूँ नभ का विस्तार
बंदीगृह – सी   लगे   जिंदगी ,  आँसू - आँसू  पहरेदार ||......... अत्यंत मार्मिक........ बधाई इस जबर्दस्त प्रस्तुति के लिए आदरणीय अरुण जी...

साझा चूल्हा नहीं जला औ’, सुख की बहती थी रसधार
चाहे सीमित थी  सुविधायें, घटा नहीं  सुख का भण्डार ||
परम्परा  पल्लवित  जहाँ  थी , पोषित होते थे संस्कार
कहाँ  गये  वे  दिवस  सुनहरे, कहाँ खो गये वे घर-बार ||

बहुत सुंदर सार्थक भाव, बहुत बहुत बधाई आदरणीय अरुण निगम जी

ओ बी ओ लाइव महोत्सव अंक-36 में तीव्र ज्वर के कारण में अभी तक किसी भी रचना पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पाया, इस हेतु सभी आदरणीयों से क्षमा प्रार्थी हूँ.... आज थोड़ा आराम है इसलिए आज कोशिश रहेगी कि कुछ टिप्पणी कर सकूँ.... इस ज्वर में जो थोड़ा सा लिख पाया वह आप सबके बीच रख रहा हूँ...

 

परंपरा एवं परिवार

एक मंत्री जी के नेता सुपुत्र पर

उसकी पत्नी ने लगाया

दूसरा विवाह करने का आरोप,

इस पर भी सुपुत्र ने छोड़ी नहीं ‘होप’,

वह पहले तो बौखलाया, फिर झल्लाया,

और अंत में खूब सोचकर अपने मंत्री पिता के साथ

मीडिया के समक्ष आया,

कहने लगा –

“भाइयों मैं आपसे करता हूँ एक सवाल,

मेरे विवाह पर क्यों मचा है बवाल,

हाँ यह सच है कि मैं दूसरा विवाह कर रहा हूँ,

लेकिन मैं तो अपने परिवार की परंपरा का

निर्वाह कर रहा हूँ,

मेरा तो दूसरा ही अधर में पड़ा है,

वह देखो,

वह मेरी चौथी माँ का बेटा खड़ा है।“

इस बात पर मीडिया वाले चौंके,

माइक का मुँह मंत्री जी की ओर होते ही

मंत्री जी गुस्से में भौंके,

“अरे झूठ बोलता है ससुरा,

हमें तो यह ख़बर ही बबाल लगती है,

सच कहें तो विपक्ष की चाल लगती है,

हमारा बेटा भी उनकी बातों में आ रहा है,

खुद को बचाने के लिए हमको फँसा रहा है,

जिसे वह अपनी चौथी माँ बताता है,

उससे तो हमारा केवल कुछ पलों का ही नाता है।”

इतना सुनते ही वहाँ उपस्थित भीड़ ने

दोनों बाप-बेटे को जमकर पीटा,

वहाँ से थाने तक घसीटा,

आज दोनों ही जेल में बंद होकर

आह भर रहे हैं,

और शायद नेताओं की एक और परंपरा का

निर्वाह कर रहे हैं।

----------------------------------------- सुशील जोशी

"मौलिक व अप्रकाशित"

वाह!!!!  भाई आदरणीय सुशील जी , बहुत खूब !!!! हास्य व्यंग की बेहतरीन रचना के लिये आपको बधाई !!!!!

बहुत बहुत धन्यवाद आपका आदरणीय गिरिराज जी....

हहाहाहा ये भी खूब रही हास्य रस में पगी ये रचना राजनीतिक परिवार से परंपरा तक गुजरती हुई जेल तक पंहुची वाह्ह्ह मजा आ गया पढ़ के ,आप जल्दी स्वस्थ होइए पहले आदरणीय सुशील  जी टिप्पणियाँ तो होती रहेंगी| 

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