परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 175 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है |
इस बार का मिसरा मुहतरमा परवीन शाकिर साहिब: की ग़ज़ल से लिया गया है |
'भूलने वाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ'
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन/फ़इलुन
2122 1122 1122 22/112
बह्र-ए-रमल मुसम्मन सालिम मख़बून महज़ूफ़
रदीफ़ --देखूँ
क़ाफ़िया:-अलिफ़ का (आ स्वर)
क्या-क्या, तन्हा,अपना,धोका,मरता आदि...
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 24 जनवरी दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 25 जनवरी दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
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मंच संचालक
जनाब समर कबीर
(वरिष्ठ सदस्य)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरणीय Euphonic Amit जी सादर नमस्कार। इतनी बारीकियों से इंगित कराने हेतु आपका आभार। सचमुच बहुत सीखने को मिलता है आपसे। आपका हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीय।
सम्माननीय शुक्ला जी। ग़ज़ल तक आने व प्रतिक्रिया हेतु आपका आभार व्यक्त करता हूँ। जी आपने त्रुटि पर ध्यान दिलाया, उचित है, बहुत बहुत शुक्रियः
आदरणीय दिनेश जी नमस्कार
अच्छी ग़ज़ल का प्रयास है बधाई स्वीकार कीजिये
गुणीजनों की इस्लाह क़ाबिले ग़ौर है सीखने को हमें भी मिला
सादर
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इक सज़ा है कि जिये जाऊँ ये दुनिया देखूँ
वो जो होता ही नहीं है उसे होता देखूँ.
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मेरे अन्दर भी मुसलसल है उजालों का सफ़र
तो ये लाज़िम है ख़ुदा को भी मैं ख़ुद सा देखूँ.
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हर गुज़रता हुआ पल मुझ को बदल देता है
आईना जब भी मैं देखूँ नया चेहरा देखूँ.
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इक समुन्दर की मुझे प्यास का आता है ख़याल
जब पहाड़ों से उतरता कोई झरना देखूँ.
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दे गई हैं हमें मिसरा ये नया सा परवीन
भूलने वाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ.
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‘नूर’ डरता हूँ कि बुझ जाए न फिर मेरा चिराग़
शौक़ फिर ये भी कि मैं ज़ोर हवा का देखूँ .
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निलेश नूर
मौलिक/ अप्रकाशित
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी आदाब।
अच्छी ग़ज़ल हुई । बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय नीलेश जी नमस्कार
बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकार कीजिये
गिरह भी ख़ूब, हर शेर पे दाद क़ुबूल कीजिये
सादर
मेरे महबूब कभी वो हसीं चहरा देखूँ
दिन भी बन जाए मिरा जो तुझे हँसता देखूँ
क्या ही अच्छा हो कभी एक हो जाए दोनों,
ज़िन्दगी जन्नत हो जाए तुझे राँझा देखूँ
टूटने तो लगी साँसें अभी फुरकत में यारा!
"भूलने वाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ"
ज़िन्दगी आज वो सहरा कि सुकूँ मिलता नहीं,
हो अभी क्या कि जो इसको मैं हँसाता देखूँ
गर वो मिल जाए तो 'चेतन' हवा दुख हो जाएं,
ज़िन्दगी हो अभी जन्नत वो नज़ारा देखूँ ।
मौलिक एवम् अप्रकाशित
आदरणीय Chetan Prakash जी आदाब।
ग़ज़ल के प्रयास पर बधाई स्वीकार करें।
मेरे महबूब दुआ है हसीं चहरा देखूँ
दिन ये बन जाए मिरा जो तुझे हँसता देखूँ
क्या ही अच्छा हो कभी एक हो जाएँ दोनों
ज़िन्दगी जन्/× नत हो जाए / तुझे राँझा देखूँ
—कृपया सानी की बह्र जाँच लें।
टूटने तो लगी साँसें अभी फ़ुर्क़त में यारा ! ×यार ✓
"भूलने वाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ"
//शुभकामनाएँ //
अपने भारत के लिए मैं यही सपना देखूँ
फिर इसे बनते हुए सोने की चिड़िया देखूँ
मेरी हसरत है, हो हर आँख में आशा की किरण
और हर सिर पे सफलताओं का सेहरा देखूँ
जिससे ये विश्व चकाचौंध हुआ जाता है
मैं उसी ज्ञान के सूरज को फिर उगता देखूँ
देश का अपने अगर सोचूँ कभी मुस्तकबिल
इसको सिरमौर मैं संसार का बनता देखूँ
अब न आतंक बचेगा कहीं पर भी, मैं, क्योंकि
लौह हर नस में, हर इक आँख में ज्वाला देखूँ
टीस थी मन में, कहाँ अपने निशाँ हैं जग में
और देखो कि मैं मंगल पे तिरंगा देखूँ
बिन मरे स्वर्ग नहीं मिलता कहा किसने ये!
मैं तो हर रोज़ मेरे हिन्द का नक़्शा देखूँ
देश अब पूछ रहा तुझ से तेरा परदेसी
“भूलने वाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ
#मौलिक एवं अप्रकाशित
2122 1122 1122 22
घर से निकलूँ कहीं बाहर जो है दुनिया देखूँ
वक़्त के साथ ही ख़ुद को भी मैं चलता देखूँ 1
सुब्ह उगते हुए मैं देख न पाया सूरज
शाम के वक़्त उसे रोज़ मैं ढलता देखूँ 2
पास अपने ही हमेशा मैं मिला हूँ बैठा
ख़ुद को क्यों भीड़ में दुनिया की मैं तन्हा देखूँ 3
अपना बचपन मुझे याद आता है हर उस पल में
जब भी बच्चों का कहीं खेल या झगड़ा देखूँ 4
कितनी हैरत भरी लगती है ये क़ुदरत यारो
हैं नज़ारे ही नज़ारे यहाँ क्या-क्या देखूँ 5
चाहती हैं यहीं आँखें मेरी तो हुस्न-ए-यार
सुब्ह उठकर मैं हमेशा तेरा चेहरा देखूँ 6
दिल में रह रह के "रिया" उठती है इक ही ख़्वाहिश
साथ तेरे मैं चलूँ कुंभ का मेला देखूँ 7
गिरह-
तेरी तस्वीर से पूछा है यही तो मैंने
'भूलने वाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ'
"मौलिक व अप्रकाशित"
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