For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 175 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है |

इस बार का मिसरा मुहतरमा परवीन शाकिर साहिब: की ग़ज़ल से लिया गया है |

'भूलने वाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ'

फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन/फ़इलुन

2122 1122 1122 22/112

बह्र-ए-रमल मुसम्मन सालिम मख़बून महज़ूफ़

रदीफ़ --देखूँ

क़ाफ़िया:-अलिफ़ का (आ स्वर)
क्या-क्या, तन्हा,अपना,धोका,मरता आदि...

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 24 जनवरी दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 25 जनवरी दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 24 जनवरी दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.comपर जाकर प्रथम बार sign upकर लें.

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के पिछ्ले अंकों को पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक...

मंच संचालक

जनाब समर कबीर 

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

Views: 654

Replies are closed for this discussion.

Replies to This Discussion

आपने बहुत ही गहन अभ्यास के साथ रचनाकर्म किया है, आदरणीय लक्ष्मण धामी जी. 

आपके सभी अश’आर सधे हुए हैं. हार्दिक बधाई 

शुभातिशुभ

आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। आपकी उपस्थिति और स्नेह पा गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ । आपके अनुमोदन से लेखन सफल हुआ। स्नेह व मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार।

2122 1122 1122 22/112

जहाँ इंसाफ़ भी बिकता हो वहाँ क्या देखूँ
बेबसी है मैं ग़रीबी का तमाशा देखूँ

चैन ख़ुद को मिले हरदम यही चाहत है मगर
ज़िंदगी के लिए मैं ख़ुद को उलझता देखूँ

कितने वीरान पड़े हैं वो इमारत क्योंकर
मैं किताबों में बहुत जिनका ही चर्चा देखूँ

लौट आया है ज़माना भी फ़िज़ा का लेकिन
'भूलने वाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ'

कल गुज़रती थी यहीं से कोई इठलाती नदी
आज हैरत से यहाँ पर कोई सहरा देखूँ


*******************************

मौलिक व अप्रकाशित

आदरणीय दिनेश जी तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल कही है मुबारक बाद पेश है ।  दूसरे शेर में इमारत लफ़्ज़ स्त्रीलिंग होने से मेरा अनुमान है, कितनी वीरान पडी हैं  होना चाहिये । सादर 

आदरणीय DINESH KUMAR VISHWAKARMA जी आदाब 

ग़ज़ल कुछ वक़्त और मश्क़ चाहती है।

2122 1122 1122 22/112

जहाँ इंसाफ़ भी बिकता हो वहाँ क्या देखूँ

बेबसी है मैं ग़रीबी का तमाशा देखूँ 

बेबसी से मैं / और ग़रीबी का तमाशा देखूँ 

चैन मुझ को मिले हरदम यही चाहत है मगर

ज़िंदगी के लिए मैं ख़ुद को उलझता देखूँ

ज़ीस्त से रोज़ ही मैं ख़ुद को उलझता देखूँ

कितने वीरान पड़े हैं वो इमारत क्योंकर

मैं किताबों में बहुत जिनका ही चर्चा देखूँ

—इमारत स्त्री लिंग है

—इमारत को बहुवचन में इमारतें लिखा जाए या

  मिसरे इमारत के हिसाब से एकवचन में निभाए जाएँ

—वाक्य के हिसाब से कितने नहीं इतने होना चाहिए 

     सुझाव —

इतनी वीरान  पड़ी है वो  इमारत  क्योंकर

रोज़ ही जिसका मैं अख़बार में चर्चा देखूँ

कल गुज़रती थी यहीं से कोई इठलाती नदी

आज हैरत से यहाँ पर कोई सहरा देखूँ

यहाँ के साथ पर का प्रयोग ठीक नहीं है 

********** शुभकामनाएँ **********

आदरणीय Euphonic Amit जी सादर नमस्कार। इतनी बारीकियों से इंगित कराने हेतु आपका आभार। सचमुच बहुत सीखने को मिलता है आपसे। आपका हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीय।

सम्माननीय शुक्ला जी। ग़ज़ल तक आने व प्रतिक्रिया हेतु आपका आभार व्यक्त करता हूँ। जी आपने त्रुटि पर ध्यान दिलाया, उचित है, बहुत बहुत शुक्रियः

आदरणीय दिनेश जी नमस्कार

अच्छी ग़ज़ल का प्रयास है बधाई स्वीकार कीजिये

गुणीजनों की इस्लाह क़ाबिले ग़ौर है सीखने को हमें भी मिला

सादर

आ. भाई दिनेश जी, सादर अभिवादन। गजल का प्रयास अच्छा हुआ है। हार्दिक बधाई।

आपकी कोशिशों के लिए हार्दिक बधाइयाँ, आदरणीय दिनेश जी. 

शुभ-शुभ

.
इक सज़ा है कि जिये जाऊँ ये दुनिया देखूँ
वो जो होता ही नहीं है उसे होता देखूँ.
.
मेरे अन्दर भी मुसलसल है उजालों का सफ़र  
तो ये लाज़िम है ख़ुदा को भी मैं ख़ुद सा देखूँ.
.
हर गुज़रता हुआ पल मुझ को बदल देता है
आईना जब भी मैं देखूँ नया चेहरा देखूँ.
.
इक समुन्दर की मुझे प्यास का आता है ख़याल
जब पहाड़ों से उतरता कोई झरना देखूँ.
.
दे गई हैं हमें मिसरा ये नया सा परवीन
भूलने वाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ.
.
‘नूर’ डरता हूँ कि बुझ जाए न फिर मेरा चिराग़
शौक़ फिर ये भी कि मैं ज़ोर हवा का देखूँ .
.
निलेश नूर 
मौलिक/ अप्रकाशित  

आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी आदाब।

अच्छी ग़ज़ल हुई । बधाई स्वीकार करें।

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"माता - पिता की छाँव में चिन्ता से दूर थेशैतानियों को गाँव में हम ही तो शूर थे।।*लेकिन सजग थे पीर न…"
2 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे सखा, रह रह आए याद। करते थे सब काम हम, ओबीओ के बाद।। रे भैया ओबीओ के बाद। वो भी…"
5 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"स्वागतम"
17 hours ago
धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

देवता चिल्लाने लगे हैं (कविता)

पहले देवता फुसफुसाते थेउनके अस्पष्ट स्वर कानों में नहीं, आत्मा में गूँजते थेवहाँ से रिसकर कभी…See More
19 hours ago
धर्मेन्द्र कुमार सिंह commented on धर्मेन्द्र कुमार सिंह's blog post देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)
"बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय,  मिथिलेश वामनकर जी एवं आदरणीय  लक्ष्मण धामी…"
20 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-185

परम आत्मीय स्वजन, ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 185 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Wednesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रस्तुति पर आपसे मिली शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ..  सादर"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ कर तरक्की जो सभा में बोलता है बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।। * देवता जिस को…See More
Tuesday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Monday
Sushil Sarna posted blog posts
Nov 6
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Nov 5

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service