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आदाब। हार्दिक बधाई आदरणीय अनिल मकारिया जी गोष्ठी का आग़ाज़ बढ़िया उम्दा व विचारोत्तेजक रचना से करने हेतु।
वाह..बहुत सुन्दर लघुकथा । हर व्यक्ति का अपना नजरिया होता है उसके भुक्तभोग के अनुसार..
उस त्रासदी के घाव अभी तक नहीं भरे हैं। एक गंभीर विषय पर सृजन के लिये बधाई आपको आदरणीय अनिल जी
इंसान लोग
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' आंटी के घर काम करने जाती है तू?' काम वाली बाई से सुरभि टीचर ने पूछा।
' नहीं मैडम।आंटी ने मना किया था।बोली थीं कि कहेंगी आने के लिए।' सन्नो बाई बोली।
' अच्छा।और तेरे पैसे?'
' वो तो उनके यहां कभी फंसे नहीं।मिल जाते हैं। और आपकी पढ़ाई के पैसे?'
' दस बारह दिन ही तो पढ़ा सकी थी।दशहरा के बाद आने के लिए पूछा,तो आंटी वही बोली थीं,जो तुझसे बोलीं। पंद्रह दिन के पैसे मेरे खाते में जमा हो जाएंगे।' सुरभि बोली।
' हां,भले लोग हैं।इंसान भी। रोग - बीमारी में हम सबको दूर रहने को कहा उन लोगों ने। बहुत लोग तो बताते ही नहीं। लोगों में घुले मिले चलते हैं। बीमारी फैले,तो फैले।'
' सही कहा तूने , सन्नो। हम डूबे,तो तुम भी डूबो, ऐसा सोचने वाले ज्यादा लोग हो गए हैं।' सुरभि बोली।
' इसीलिए कहती हूं दीदी कि और कोई काम छूटे,तो छूटे,पर उनका काम नहीं छोड़ूंगी। जब काम बंद था, तब भी कुछ मदद उन लोगों ने कि थी।'
' हां री,आजकल वैसे इंसान कम ही मिलते हैं,जो संकट के समय मददगार हों और अपनी तकलीफ से दूसरों को बचायें।' सुरभि की आवाज नम हो गई थी।
" मौलिक व अप्रकाशित"
सादर नमस्कार। बढ़िया सकारात्मक रचना। लेकिन पिछली रचनाओं जैसी की प्रतीक्षा रहती है।
आपका दिली आभार आदरणीय उस्मानी जी।नमन।
सकारात्मक रचना। हार्दिक बधाई। पर जैसा कि आदरणीय उस्मानी जी ने कहा है, आपवाला तेवर थोड़ा मिसिंग है।
आदरणीया प्रतिभा जी,आपका दिली आभार।मेरी लघुकथाएं आपका ध्यान आकृष्ट करती हैं,यह मेरा सौभाग्य है।
लघु- कथा
कल मानव और विभा की शादी के दस वर्ष पूरे हो रहे थे। सो इस बार की मैरिज एनीवर्सरी विशेष थी। दाम्पत्य जीवन में कोई अभाव प्रकटतः तो विभा को नहीं था। दो बच्चे, बेटी मानसी और बेटा विशेष प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहे थे। विभा एम, ए. बी. एड. थी, मिजाज़ से हाउस वाइफ थी। सारा दिन चौका बर्तन, सफाई, बच्चों की सुख-सविधा में कोई कमी न रहे इसमें निकल जाता था । हाँ मानव से ज़रूर उसे शिकायत थी। मानव एक कस्बे के महाविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता थे। उनका ज्यादातर समय अध्ययन और अध्यापन में ही निकल जाता और बचता तो दोनों बच्चों के होम-वर्क कराने में निकल जाता था। रविवार की छुट्टी विभिन्न परियोजनाओं में उनके काॅलेज को विश्व विद्यालय अथवा यू. जी. सी. से सभी ग्रान्ट्स मिल सके, प्रोजेक्ट तैयार करने मे लग जाता था । कभी भाग्य से थोड़ा अवकाश भी मिलता तो प्राचार्य यह पूछने के लिए आ धमकते कि अमुक प्रोजेक्ट पूरा हो गया अथवा नही । कभी- कभी तो स्टूडैन्ट्स अपनी व्यक्तिगत समस्याएं लेकर आ पहुँचते तो और दिक्कत हो जाती।
" मानव के पास बस उस के लिए ही समय नहीं था, विभा सोच रही थी, " और, अब जनाब कई हजार रुपये शादी की दसवीं वर्ष-गाँठ की औपचारिकता पर फूँकने जा रहे थे। छी...ऐसे आडम्बर पर..." ,.उसे घिन आने लगी थी। सोचते-सोचते कब विभा की आँख लग गयी उसे पता ही नहीं चला। सुबह जब उसने आँखें खोली तो मानव उसे झिंझोड़ रहे थे।" अरे उठोगी नहीं क्या, आठ बज चुके है। तुम्हें तो पता है कितनी तैयारिया करनी है, कितने काम करने को हैं।" विभा का असन्तोष गुस्सा बनकर फूट निकला,
शादी की वर्ष-गाँठ के लिए इतनी चिन्ता और जिसे दस साल पहले गाँठ बाँधकर लाए थे, उस से भी कभी पूछा, विभा कैसी हो, तुम उदास क्यों रहती हो। बस वक्त-ज़रूरत बाँहों में भरा और भोग लिया। हरम की दासी हूँ, तुम्हारी या रखैल बताओ तो जरा।"
मानव को काटो तो खून नही...... पहली बार आज उसे अहसास हुआ । उससे अब तक बहुत बड़ी चूक हो रही थी। उसने आगे बढ़कर विभा को बाँहों में समेट लिया, " आइ लव यू मोस्ट, माई डियर !"
अब विभा की आँखों से गंगा-जमुना एक साथ बह रहीं थी।
मौलिक एवं अप्रकाशित
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सादर नमस्कार आदरणीय चेतन प्रकाश जी। गंभीर मुद्दे उठाती बढ़िया रचना। कृपया इस बात पर.ग़ौर कीजिएगा कि यह शैली व विवरण अनुसार लघु कहानी है। लघुकथा नहीं। इस हेतु कृपया इस वेबपत्रिका की लघुकथा कक्षा व आलेख पढ़ लीजिएगा।
मोहतरम भाई, Sheikh Shahzad Usmani साहब, प्रस्तुति आपको अच्छी लगी, इसके निए आपका वहुत शुक्रिया ! लघु - कथा अथवा लघु कहानी पर चर्चा, दोस्त, ऐसी है, जैसे प्याज पर पहली दो पर्तें । सो, भाई, जुनून, कहे या पागलपन स्रोत और लक्षण समान है। वैसे भी अन्य लघु-कथाओं से मेरी इस लघु- कथा की निष्पक्ष तुलना करेंगे तो पाएंगे कि मेरी प्रस्तुति का वितान अपेक्षाकृत क़म ही नहीं, प्रस्तुत लघु - कथा गठन की दृष्टि से अपेक्षाकृत बेहतर है।
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