आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर जी
आदरणीय प्रतिभा पांडे जी , अपनी बात कहने में पूरी तरह से सफल , विचार करने को प्रेरित करती लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई... पुनः विशेष बधाई लघुकथा को बहुत ही अप्रत्याशित अंत प्रदान करती "और फिर अपनी अपनी कब्र के अन्दर लौट गये।" इस पंच लाइन के लिए.
हार्दिक आभार आदरणीय गंगाधर शर्मा जी।
आदाब। उपरोक्त टिप्पणियों में वह सब कह दिया गया है जो आपके फैन पाठकगण कहना चाहते हैं। गागर में सागर रूपी कसी हुई सारगर्भित रचना का समापन भी बेहतरीन है। शीर्षक भी। बेक़सूरों की मौतों, फ़सादों के तत्वों व तत्वाधानों पर बेहतरीन सार्थक सृजन के लिए हार्दिक बधाई मुहतरमा प्रतिभा पाण्डेय साहिबा।
कटाक्ष करती बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीया प्रतिभा दी।
तुम वही तो... नहीं (लघुकथा) :
"अच्छा! तो तुम इस देश के नाग...रिक.... हो!"
"हाँ, कोई शक! नागरिक हूँ। नागरिकता के सारे सुख भोगते-भोगते ऑलराउंडर बन गया हूँ!"
"आलराउंडर बोले तो...?"
"अजी मतलब यह कि जो करना है कर लेता हूँ; जो करवाना हो, कर देता हूँ; जो भोगना है, भोग लेता हूँ और जो भुगवाना हो, भुगवा देता हूँ..हा हा हा!"
"...और देशभक्ति?"
"देश...भक्ति! हाँ, वो भी कर देता हूँ या दिखा देता हूँ; करवा लेता हूँ या दिखवा देता हूँ!... लेकिन एक बात ध्यान से सुन लो!"
"वो क्या?"
"जब सब कुछ बदल गया है या बदल रहा है या बदला या बदलवाया जा रहा है, तो नागरिक भी बदल गये और नागरिकता भी! धर्म-भक्ति और देशभक्ति भी! शक्ति और भक्ति के नये तेवर समझ तो रहे हो न!"
"... इसीलिए तो पूछा न... कि तुम इस देश के ही नागरिक हो न!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय शेख सरजी।
मेरी इस प्रविष्टि पर त्वरित उपस्थिति और मेरी यूं हौसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरमा बबीता गुप्ता जी।
परिवर्तन की यह परिभाषा भी खूब रही भाई उस्मानी जी। इस प्रस्तुति पर मेरी बधाई स्वीकार करें।
मेरी इस तात्कालिक रचना पर त्वरित प्रोत्साहक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार आदरणीय योगराज सर जी।
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