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जिस्म में पहले जान फूँकता है
बाद-अज़-जाँ अज़ान फूँकता है
सब्र कर शब गुज़र ही जाएगी
क्यों ये अपना मकान फूँकता है
अपनी नफ़रत की आग से कोई
देखो हिंदौस्तान फूँकता है
पास आकर वो गर्म साँसों से
मेरे दिल का जहान फूँकता है
आग तो सर्द हो चुकी कब की
क्यों अबस राखदान फूँकता है
हुक्म से रब के ल'अल मरयम का
देखो मुर्दे में जान फूँकता है
रोज़ आयात पढ़ के क़ुरआँ की
मुझ प इक मह्रबान फूँकता है
"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
जनाब सुशील सरना जी आदाब,ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ ।
अपनी नफ़रत की आग से कोई
देखो हिंदौस्तान फूँकता है
जनाब कबीर साब ,
इस में वो सब कह दिया आपने जिसे लिखने में कितने पन्ने लग जाएँ तो भी न लिखा जाए
बहुत बहुत मुबारक
बहुत ख़ूब समर साहब बेहतरीन ग़ज़ल हुई है हर शेर लाजवाब है ख़ूब अच्छे से सजाया है इसे आपने बहुत बहुत मुबारक
वाह सर हर एक शेर बहुत कीमती लगा । बेहतरीन ग़ज़ल के लिए तहेदिल से बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय समर क़बीर साहब जी। आदाब।लाज़वाब गज़ल।
अपनी नफ़रत की आग से कोई
देखो हिंदौस्तान फूँकता है
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
Samar kabeer जी,
आज के हालात पर इससे बेहतर रचना का निर्माण नहीं हो सकता | एक-एक शेर दर्द से भरा है | शानदार अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई सर |
जिस्म में पहले जान फूँकता है
बाद-अज़-जाँ अज़ान फूँकता है
सब्र कर शब गुज़र ही जाएगी
क्यों ये अपना मकान फूँकता है...... वाह आदरणीय समर कबीर साहिब वाह किस शेर की बात करें हर शेर अजब कहानी का मंज़र पेश करता है। अहसासों का ऐसा तर्ज़ुमा आपके सिवा कौन कर सकता है। इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।
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