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रहेगी इश्क में बिस्मिल हमारी बेबसी कब तक
हमारा टूटना कब तक और' उनकी दिल्लगी कब तक।
सिमटकर इक परिंदा जान अपनी दे ही बैठा है
शिकारी! तू पकड़ इस पे रखेगा यूँ कसी कब तक।
यहाँ लोमड़ बने बुद्धू, चले तरकीब गीदड़ की
चलेंगी और ये बातें बताओ बे तुकी कब तक।
अवामी सोच बढ़ने पर असर झूठा हुआ इनका
ये जुमलों की अरे साहब!, लगेगी यूँ झड़ी कब तक।
बड़ा तूफ़ान आयेगा लगा कर कान ये सुन लो
समंदर की जरा सोचो रहेगी ख़ामुशी कब तक।
बिस्मिल: ज़ख्मी, आहत
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सतविन्द्र जी, ख़ूबसूरत शेर हुए है. हार्दिक बधाई.
आदरणीय राज नवाद्वि जी सादर नमन, उत्साहवर्धन के लिए तहेदिल आभार
आदरणीय तेजवीर सिंह जी, सादर नमन! हौंसलाफ़ज़ाई के लिए सादर आभार
आदरणीय समर कबीर सर नमन, मार्गदर्शन हेतु तहे दिल शुक्रिया। सादर
आदरणीय राणा जी, हार्दिक बधाई. सुन्दर गज़ल की प्रस्तुति. मुबारकबाद. सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय सतविंदर जी।बेहतरीन गज़ल।
अवामी सोच बढ़ने पर असर झूठा हुआ इनका
ये जुमलों की अरे साहब!, लगेगी यूँ झड़ी कब तक।
जनाब सतविन्द्र कुमार राणा जी आदाब, तरही ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन समय चाहता है,बधाई स्वीकार करें ।
'किसी के इश्क में बिस्मिल हमारी बेबसी कब तक'
इस मिसरे को यूँ कर लें :-
'रहेगी इश्क़ में बिस्मिल हमारी बेबसी कब तक'
'शिकारी! बोल तो जंजीर उस पर हाँ कसी कब तक'
इस मिसरे का शिल्प कमज़ोर है, और "हाँ" शब्द भर्ती का है दूसरी बात ये कि परिन्दे को ज़ंजीर से नहीं कसा जाता , इसे यूँ कर सकते हैं:;
'शिकारी तू पकड़ इस पे रखेगा यूँ कसी कब तक'
'
लोमड़ बने बुद्धू, चले तरकीब गीदड़ की
चलेंगी और ये बातें बताओ बे तुकी कब तक'
इस शैर का ऊला मिसरा बह्र में नहीं,यूँ कर सकते हैं:-
'चले बुद्धू बने लूमड यहाँ तरकीब गीदड़ की'
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