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बशीर बद्र साहब की जमीन पर एक तरही ग़ज़ल

अरकान-: मफ़ाइलुन फ़्इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन

नया ज़माना नया आफ़ताब दे जाओ
मिटा दे जुर्म जो वो इन्क़िलाब दे जाओ

हज़ार बार कहा है जवाब दे जाओ,
मैं कितनी बार लुटा हूँ हिसाब दे जाओ||

मुझे पसंद नही मरना इश्क़ में यारो,
मुझे है शौक़ नशे का शराब दे जाओ||

वो कह रहे हैं खड़े होके बाम पर मुझ से,
तमाशबीन बहुत हैं नक़ाब दे जाओ ||

करम करो ये मेरे हाल पर चले जाना
*उदास रात है कोई तो ख़्वाब दे जाओ*||

अगर जगाना है सोए हुओं को ऐ यारो,
तुम इनको इल्म की कोई किताब दे जाओ||

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by नाथ सोनांचली on October 26, 2017 at 6:57pm
आद0 आशुतोष जी सादर अभिवादन। ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और आत्मीय बधाई का दिल से आभार। सादर
Comment by नाथ सोनांचली on October 26, 2017 at 6:56pm
आद0 समर साहब सादर प्रणाम। आपकी देन है जो कुछ ग़ज़ल विधा में कह पाता हूँ।आपकी टिप्पणी हमेशा कुछ बेहतर लिखने को बल देती है। हृदय से आभार आपका। सादर
Comment by नाथ सोनांचली on October 26, 2017 at 6:54pm
आद0 अफरोज जी सादर अभिवादन।ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और प्रोत्साहन के लिए हृदय से आभार।
Comment by नाथ सोनांचली on October 26, 2017 at 6:53pm
आद0 सौरभ पांडेय जी, आद0 शिज्जू शकूर जी, आद0 नीलेश जी, आद0 समर साहब आप सभी की चर्चा में उपस्थिति से हमे भी बहुत कुछ स्पष्ट हुआ। सभी का हृदय से आभार।
Comment by नाथ सोनांचली on October 26, 2017 at 6:29pm
आद0 इन्द्रविद्याचस्पति तिवारी जी सादर अभिवादन। ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सुखनवाजी के लिए दिल से शुक्रिया। सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 26, 2017 at 6:28pm
आदरणीय सुरेन्द्र जी उस बेहद उम्दा रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
Comment by Samar kabeer on October 26, 2017 at 5:52pm
अब मुझे एक गीत की पंक्ति याद आ रही है:-
'कैसे समझाऊँ...
Comment by Mohammed Arif on October 26, 2017 at 5:39pm
आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब आदाब,मेरा मौलकता से आशय शाइर के अपने स्वयं के शे'र और मिसरों से है । सादर ।
Comment by Samar kabeer on October 26, 2017 at 5:17pm
जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Samar kabeer on October 26, 2017 at 5:15pm

'न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए'
//बताते हैं कि ये निहायत खूबसूरत शैर एक तरही मुशायरे की ग़ज़ल से ही है. और इसी शैर पर गिरह लगाई गई है.ये सूचना चाहे सही हो या न हो,//
जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब आदाब,ये सूचना सो प्रतिशत सही है,ये मिसरा'न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम ही जाए'साहिब-ए-दीवान शाइर 'नज़्मी'साहिब का है जो उनके दीवान में मौजूद है,ये उनके मक़्ते का सानी मिसरा है, उनका मक़्ता मुलाहिज़ा फरमाएं :-

"कफ़न दाबे बग़ल में इसलिये फिरता हूँ ऐ 'नज़्मी'
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम ही जाए'

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